पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्र (Five Laws of Library Science)
पंच सूत्र (Five Laws)
पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्रों का प्रतिपादन भारत में पुस्तकालय आन्दोलन के जनक शियाली रामामृत रंगनाथन ने किया। रंगनाथन एक सर्वोत्कृष्ट पुस्तकालय वैज्ञानिक थे। आपने पुस्तकालय विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक विधि को प्रायोज्य किया और इस उद्देश्य के लिये उन्होनें आदर्शक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिनको सूत्र (Laws), उपसूत्र (Canons) और सिद्धान्तों (Principles) का नाम दिया है।
आपने सूत्र, उपसूत्र और सिद्धान्त नामक शब्दों का उपयोग एक विशेष सन्दर्भ में किया
(i) सूत्र (laws): मुख्य वर्ग के सन्दर्भ में जैसे अर्थशास्त्र, भौतिकी, रसायन और पुस्तकालय विज्ञान आदि।
(ii) उपसूत्र (Canons): मुख्य वर्ग के विभाजन के प्रथम क्रम में जैसे वर्गीकरण, सूचीकरण आदि
(iii) सिद्धान्त (Principles): मुख्य वर्ग के विभाजन के द्वितीय क्रम तथा बाद के क्रमों में
जैसे वर्गीकरण में मुख अनुक्रम (Facet Sequence) रंगनाथन ने सन् 1924 में ही पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्रों की पकड़ कर ली थी। परन्तु उनका अभिव्यक्तिकरण 1928 में हो सका। सन् 1931 में “Five Laws of Library Science” के नाम से उनका प्रकाशन हुआ। यह एक वरेण्य ग्रन्थ (classic) है जो पंच सूत्रों और उनके निहितार्थों को विस्तार से वर्णित करता है। यह सूत्र पुस्तकालय विज्ञान को वैज्ञानिक अभिगम प्रदान करते हैं। कालान्तर में रंगनाथन ने इन सूत्रों को अपनी समस्त रचनाओं में प्रायोज्य किया और यह पुस्तकालय विज्ञान रूपी विशाल भवन के पाँच स्तम्भ बन गये जिन पर वह प्रस्थापित है। ये पंच सूत्र पुस्तकालय विज्ञान की आधारशिला हैं और पुस्तकालय विज्ञान, पुस्तकालय सेवा और पुस्तकालय व्यवसाय की किसी भी समस्या के निराकरण हेतु प्रायोज्य हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इनमें भूत, वर्तमान और भविष्य के समस्त पुस्तकालय व्यवहार सन्निहित हैं। नवागत व्यवहारों के लिये भी यह सदैव प्रायोज्य हैं। ये सूत्र निम्नानुसार है:
प्रथम सूत्रः ग्रन्थ उपयोगार्थ हैं (Book are for use)
द्वितीय सूत्रः ग्रन्थ सर्वार्थ हैं/प्रत्येक पाठक को उसका अभीष्ट ग्रन्थ प्राप्त हो (Book are for all/Every Reader his/her book)
तृतीय सूत्रः प्रत्येक ग्रन्थ को उसको उपयुक्त पाठक प्राप्त हो (Every Book its Reader)
चतुर्थ सूत्र : पाठक का समय बचाओ (Save the time of Reader)
पंचम सूत्र : पुस्तकालय एक विकासशील संस्था है (Library is a Growing Organisation)
टिप्पणी : वर्तमान प्रसंग में अंग्रेजी के शब्द “book” के स्थान पर “document” शब्द का उपयोग अधिक समीचीन होगा क्योंकि यह विस्तृत भाव का द्योतक है। पॉलिन ए. अथर्टन ने इन पंच सूत्रों का समालोचात्मक परीक्षण अपने सुविख्यात ग्रन्थ “Putting Knowledge to Work” में किया है।
प्रथम सूत्र : ग्रन्थ उपयोगार्थ हैं (Books are for Use)
पुस्तकालय विज्ञान का प्रथम सूत्र एक अत्यंत सरल कथन है जो स्वस्पष्ट है और सभी लोग इससे सहमत होंगे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की राय में भी “किसी पुस्तकालय का महत्व पाठ्य-सामग्री के उपयोग विस्तार से न कि ग्रन्थों की भामिक (Staggering) संख्या से निर्णीत होता है।” व्यवहार में इस सूत्र की प्राचीन काल में और मध्यकाल में पूर्णतः उपेक्षा होती रही थी, पुस्तकालयों को ग्रन्थों का भण्डार गृह माना जाता था और ग्रन्थालयी का प्रमुख कार्य ग्रन्थों का ‘परिरक्षण’ होता था। वह ग्रन्थों का उपयोग करने के लिये जनसाधारण को तनिक भी प्रोत्साहित नहीं करता था। दूसरे शब्दों में ग्रन्थों के ‘उपयोग’ का पक्ष ‘गौण’ और ‘सुरक्षा’ का पक्ष ‘प्रबल’ होता था। इसका मुख्य कारण ग्रन्थों का मूल्यवान, अलभ्य (rare) तथा अप्राप्य होना था। मुद्रण के आविष्कार से उपरोक्त स्थिति समाप्त हो गई और ग्रन्थ मूल्यवान, अलभ्य और अप्राप्य नहीं रहे। अब अनेक प्रगतिशील और विकसित देशों में पुस्तकालय सम्बन्धी दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया है। परन्तु कहीं-कहीं अभी भी पुराने दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं हुआ है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। आज निःशुल्क जन पुस्तकालय सेवा प्रदान करना राज्य और सरकार का आवश्यक कार्य माना जाता है। आधुनिक पुस्तकालय ग्रन्थों का अर्जन, प्रस्तुतीकरण (Processing) आदि उनके उपयोगार्थ हेतु प्रस्तुत करते हैं। पुस्तकालयों में अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System) अपनायी जाने लगी है। ग्रन्थ पाठकों के घर भेजे जाते हैं। चल पुस्तकालय सेवा संचालित की जाती है। आधुनिक पुस्तकालय का दायित्व प्रत्येक सम्भाव्य पाठक को वास्तविक पाठक और पुस्तकालय आने का अभ्यस्त जान है।
प्रथम सूत्र ने पुस्तकालय से सम्बन्धित निम्नांकित बातों को प्रमुख रूप से प्रभावित किया है और उनमें आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है:
- पुस्तकालय भवन का स्थान निर्धारण (Location) और निर्माण;
- पुस्तकालय कार्यकाल (Library Hours)
- पुस्तकालय उपस्कर और साज-सज्जा (Furniture and Equipments)
- TAGORE (RN): Function of a Library (Address as Chairman, Reception Committee, All India Library held at Calcutta in 1938).
- पुस्तकालय के नियम विनियम (Rules-regulation)
- पुस्तकालय कर्मचारीगण (Staff)
- ग्रन्थ चयन (Book Selection)
- निधानी व्यवस्थापन (Shelf Arrangement) और उच्च द्वार प्रणाली (Open Access System)
- संदर्भ सेवा (Reference Service)
- अनुरक्षण कार्य (Maintenance Work)
- पुस्तकालय भवन का स्थान निर्धारण (Location) और निर्माण सामान्यतः यह मान्यता है कि पुस्तकालय भवन का निर्माण शान्त तथा निरापद स्थान पर होना चहिये। इससे पुस्तकालय में शान्त वातावरण की स्थापना होगी, केवल अध्ययनशील, विद्यानुरागी व्यक्ति ही पुस्तकालय में आयेंगे और पाठ्य सामग्री सुरक्षित रहेगी। परन्तु प्रथम सूत्र अर्थात ग्रन्थों के उपयोग की दृष्टि से यह विचार भ्रामक तथा त्रुटिपूर्ण है। यदि ग्रन्थों का अधिकाधिक उपयोग वांछित है तो जन पुस्तकालय भवन निर्माण ऐसे स्थान पर होना चाहिये जहाँ जनसाधारण सुविधापूर्वक पहुँच सके अथवा अन्य पाठक आवश्यक कार्यवश वहाँ जाते ही हों उदाहरणार्थ आवश्यक सामग्री खरीद-फरोख्त करने। इसी प्रकार विश्वविद्यालयीन पुस्तकालयों को केन्द्रित स्थान पर, जो विभिन्न अध्ययनशालाओं और छात्रावासों से सुविधापूर्वक जुड़ा हो, अवस्थित करना चाहिये। विद्यालयीन तथा महाविद्यालयीन पुस्तकालयों और विशिष्ट पुस्तकालयों में दूरी की कोई विशेष समस्या नहीं है।
पुस्तकालय भवन कार्यशील (functional) होना चाहिये। वह भली प्रकार नियोजित और आकर्षक होना चाहिये और सरलता से उपयोगकर्ताओं की पहुँच में होना चाहिये। उसका बाह्य और आन्तरिक स्वरूप आकर्षक एवं वायु तथा प्रकाश का समुचित प्रबन्ध होना चाहिये। पुस्तकालय भवन में पूर्ण तथा सुखकर वातावरण निर्मित होना चाहिये। उसमें समस्त विभागों के लिये पर्याप्त स्थान होना चाहिये। एक विशाल जन पुस्तकालय में व्याख्यान कक्ष और अध्ययन परिमण्डलों के लिये स्थान होना चाहिये और विश्वविद्यालयीन और महाविद्यालयीन पुस्तकालयों में शोध अध्येताओं को अध्ययन प्रकोष्ठों की व्यवस्था होनी चाहिये। उचित हो यदि पुस्तकालय भवन वातानुकूलित (Air conditioned) करवा लिया जाये। पुस्तकालय की तुलना, बैठक कक्ष (drawing room) से की जाती है। जिस प्रकार किसी घर में सर्वोत्तम और सबसे सुन्दर कक्ष, बैठक कक्ष होता है, किसी नगर, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय अथवा विद्यालय में वही स्थान पुस्तकालय का है। - पुस्तकालय कार्यकाल (Library hours) यदि पुस्तकालय-पाठ्य-सामग्री का अधिकतम उपयोग करवाना है तो पुस्तकालय को अधिक से अधिक दिनों और समय तक खोलना पड़ेगा। यदि सम्भव हो तो वर्ष में 365 दिन प्रातः 8 बजे से रात्रि 10 बजे तक पुस्तकालय खुला रखना चाहिये। ऐसी स्थिति में ही उपयोगकर्ता सुविधापूर्वक पुस्तकालय सेवाओं का भरपूर उपयोग कर सकेंगे। मध्यकालीन युग में पुस्तकालयों को कभी-कभी साफ-सफाई करने को खोला जाता था। कुछ पुस्तकालय कुछ सीमित दिनों में कुछ घन्टों के लिये खुलते थे और वह समय भी पाठकों को सुविधाजनक नहीं होता था। निःसंदेह इस प्रकार प्रथम सूत्र की अवहेलना की जाती रही। अब इस विचारधारा में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। देश-विदेश में आज अनेक पुस्तकालय प्राधिकरण जो प्रथम सूत्र में आस्था रखते हैं अपने पुस्तकालयों को
प्रतिदिन रविवार तथा अन्य अवकाशों सहित प्रातः 8 बजे से रात्रि 8 बजे तक खुला रखते हैं। अनेक विश्वविद्यालयीन और महाविद्यालयीन पुस्तकालय तो रात्रि में 11 बजे तक खुले रहते हैं। युनिवर्सिटी कॉलेज, लन्दन का पुस्तकालय पाठकों के लिये चौबीसों घंटे खुला रहता है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि पुस्तकालय उस समय अवश्य खुला रहना चाहिये जब उपयोगकर्ताओं के पास खाली समय हो। जन पुस्तकालय सायं और रात्रि के समय अवश्य खुले रहना चाहिये। दूसरी ओर शैक्षणिक पुस्तकालयों को कक्षा लगने के बाद खुला रखना चाहिये। परीक्षाओं से कुछ दिन पूर्व उनका कार्यकाल बढ़ा देना चाहिये। - पुस्तकालय उपस्कर (Furniture) तथा साजसज्जा (Equipments): उपस्कर तथा साज-सज्जा उपयोगी, आरामदेह और आकर्षक होना चाहिये और इसमें भारतीय मानक संस्थान के मानकों का पालन करना चाहिये। पुस्तकें रखने की अलमारियाँ (Book Shelves) केवल इतनी ही ऊँची होनी चाहिये जहाँ उपयोगकर्ताओं के हाथ सरलता से पहुँच सके। मेज कुर्सियाँ आरामदेह होनी चाहिये। प्राकृतिक प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। भण्डार कक्ष में पाठकों के चलने फिरने के लिये पर्याप्त चौड़े रास्ते होने चाहिये। यदि उपरोक्त सुविधायें प्राप्त होंगी तो ही पाठ्य-सामग्री के उपयोग को पर्याप्त गति प्राप्त होगी तथा पाठक पुस्तकालय की ओर आकर्षित होंगे।
- पुस्तकालय के नियम-विनिमयः पुस्तकालय नियम इस प्रकार होने चाहिये जो ग्रन्थों को अधिकाधिक उपयोग में व्यवधान उपस्थित नहीं करना चाहिये।
- पुस्तकालय कर्मचारीगणः पुस्तकालय प्राधिकारियों की मान्यता थी कि कोई भी व्यक्ति जो किसी भी कार्य के लिये अनुपयुक्त हो, पुस्तकालय का संचालन कर सकता है। उनका दृष्टिकोण पुस्तकालय। पाठ्य सामग्री का उपयोग करवाने के बजाय संरक्षण करना होता था। अब इस मान्यता को प्रथम सूत्र में आस्था रखने के फलस्वरूप त्याग दिया गया है। किसी भी पुस्तकालय की सफलता तथा उसमें संग्रहित पाठ्य सामग्री का उपयोग काफी सीमा तक उसमें कार्यरत प्रशिक्षित कर्मचारियों पर निर्भर करता है। आज ग्रन्थालयीनता (Librarianship) एक जटिल व्यवसाय है। अतः पुस्तकालय कर्मचारियों को भली भांति शिक्षित, प्रशिक्षित, विद्वान, परिश्रमी तथा ग्रन्थानुरागी होना चाहिये। उनको कुशल प्रशासक, विनम्र तथा जनप्रेमी भी होना आवश्यक है। ग्रन्थालयीनता की ओर श्रेष्ठ व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिये उनको यथोचित वेतन मान तथा सामाजिक स्तर प्रदान करना चाहिये। पुस्तकालय कर्मचारियों को पाठकों के साथ मित्रवत् व्यवहार करते हुए दार्शनिक और मार्गदर्शन की भूमिका का निर्वहन करना चाहिये। कर्मचारियों को सेवा भावी और मृदुभाषी होना चाहिये।
- ग्रन्थ चयनः मध्यकालीन पुस्तकालयों में ग्रन्थ चयन का कार्य उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं और रुचियों को ध्यान में रखकर करने के बजाय कुछ सीमित लोगों की इच्छानुसार किया जाता था। यदि प्रथम सूत्र को संतुष्ट करना है तो ग्रन्थ चयन वर्तमान और संभावित उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखकर करना चाहिये। ग्रन्थ पाठक उपयोगी, सरल, आकर्षक और सुन्दर होने चाहिये जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। एक महाविद्यालयीन पुस्तकालय में पाठ्य ग्रन्थों का पाठ्यक्रम के अनुसार अच्छा संकलन होना चाहिये और विद्यालयीन पुस्तकालय में बड़े टाइप मुद्रण में छपे सचित्र ग्रन्थों का चयन करना चाहिये।
- निधानी व्यवस्थापन और उन्मुक्त द्वार प्रणाली (Open Access): निधानी व्यवस्थापन के द्वारा भी पुस्तकालय पाठ्य सामग्री के उपयोग को गति प्रदान की जा सकती है। ग्रन्थों का व्यवस्थापन, पुस्तकों में वर्णित विषयों के आधार पर होना चाहिये। क्योंकि अधिकांश पाठक ग्रन्थों की मांग विषयानुसार ही करते हैं। आधुनिक पुस्तकालयों में उच्च द्वार प्रणाली अपनाकर पाठकों को ग्रन्थ चुनने में अधिकाधिक स्वायत्तता प्रदान की जाती है, इस प्रकार ग्रन्थों के उपयोग में बढ़ोतरी होती है।
- सन्दर्भ सेवाः सन्दर्भ सेवा पाठकों को पाठ्य सामग्री को चुनने में व्यक्तिगत सहायता तथा मार्गदर्शन प्रदान करती है। इसमें ‘मानवीय स्पर्श निहित होता है जिसके द्वारा ग्रन्थों के उपयोग को गति प्रदान की जा सकती है। सन्दर्भ सेवा के द्वारा ‘उपयुक्त पुस्तक और उपयुक्त पाठक का उपयुक्त समय पर सम्पर्क स्थापित किया जाता है।’ उचित और सक्षम सन्दर्भ सेवा के अभाव में अधिकांश पुस्तकालय सन्दर्भ स्रोत बिना उपयोग किये ही पड़े रह सकते हैं। अतः ग्रन्थों को उपयोग करवाने की दृष्टि से सन्दर्भ सेवा की भूमिका को न्यून नहीं किया जा सकता है।
- अनुरक्षण कार्यः प्रथम सूत्र को संतुष्ट करने के लिये ग्रन्थों के अनुरक्षण कार्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है। अतः पुस्तकों की झाड़-पोंछ हमेशा होती रहना चाहिये। पुस्तकालय में साफ-सफाई की ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिये। पुस्तकें देखने में सदैव आकर्षक और मनोहारी होनी चाहिये। उनकी जिल्दबन्दी निरंतर कराते रहना चाहिये। धूल भरी, कटी फटी और बेडौल पुस्तकें पाठकों को आकर्षित नहीं कर सकती है। जीर्ण-शीर्ण और गतिविधि पुस्तकों को अलग निकाल देना चाहिये। पुस्तकों के उपयोग को बढ़ाने के लिये उनकी ताजगी बनाये रखना आवश्यक है। अतः उनकी जिल्दबन्दी एवं मरम्मत होती रहनी चाहिये।
पुस्तकों के उपयोग को बढ़ाने के लिये उनको कई अनुक्रमों (Sequence) जैसे सन्दर्भ अनुक्रम, पाठ्य-पुस्तक अनुक्रम, अप्रवेश्य अनुक्रम आदि में व्यवस्थित करना चाहिये। इससे उपयोगकर्ताओं के लिये पुस्तकों का उपयोग सुविधाजनक हो जाता है। इन अनुक्रमों तथा संग्रहों को समय के अन्तराल से नवीनता लाने के लिये पुनर्गठित किया जा सकता है। पुस्तकालय में विशेष रूप से भण्डार कक्ष में पर्याप्त संदर्शिकायों की व्यवस्था होनी चाहिये। सामान्यतःः भारतीय पुस्तकालयों में प्रतिवर्ष भण्डार सत्यापन की प्रथा है और उस समय पुस्तकालय जन उपयोग को बन्द कर दिया जाता है जो उचित नहीं है। भण्डार सत्यापन कार्य को इस प्रकार संगठित करना चाहिये जिससे पुस्तकालय सेवायें बिना किसी असुविधा के चलती रहें।
पुस्तकालयों में विशेष रूप से अबाध प्रवेश प्रणाली वाले पुस्तकालयों में पाठकों दारा पुस्तकों का क्रम बिगड़ता रहता है जिसको नियमित रूप से ठीक करने की व्यवस्था होनी चाहिये।
2.2. द्वितीय सूत्र ग्रन्थ सर्वार्थ हैं (Books are for all) अथवा प्रत्येक पाठक को उसका अभीष्ट ग्रन्थ प्राप्त हो (Every Reader his/her Book)
जिस प्रकार पूर्व में ‘ग्रन्थों को सुरक्षार्थ समझा जाता था उसी प्रकार ‘उनको कुछ चुनिन्दा लोगों को समझा जाता था। प्रजातन्त्र युग के आगमन के साथ ग्रन्थों और पुस्तकालयों के उपयोग में भी प्रजातान्त्रिक भावना का उदय हुआ। द्वितीय सूत्र के लिये ‘सभी’ को अर्थ वास्तव में ‘सभी’ है अर्थात केवल वही नहीं जो पढ़ना चाहते हैं, केवल वही नहीं जो पढ़ सकते हैं, केवल वही नहीं जो पुस्तकालय में आ सकते हैं अपितु ‘सभी’ में वास्तव में ‘सभी’ सम्मिलित हैं। केवल विद्यानुरागी ही नहीं अपितु नर-नारी, धनी, निर्धन, दृष्टिहीन, स्वस्थ, अस्पताल में भर्ती रोगी, नवसाक्षर, बाल, वृद्ध, पण्डित, अल्पमति, कैदी, कारीगर, मजदूर, डाकू, नाविक, अधिकारी, अपंग आदि सबके लिये ग्रन्थ हैं।
यहाँ अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सबको समान रूप से पुस्तकें कैसे उपलब्ध करवाई जायें? यह कार्य सरकार, पुस्तकालय प्राधिकरण, पुस्तकालय कर्मचारियों और पाठकों के सम्मिलित प्रयासों तथा सहयोग से ही सम्भव है। अतः द्वितीय सूत्र इन चारों के अलग- अलग कर्तव्य (obligation) निर्धारित करता है। यही द्वितीय सूत्र के निहितार्थ (Implications) हैं। अब हम इनके कर्तव्यों पर विस्तार से अलग- अलग विचार करेंगे।
सरकार के कर्तव्य द्वितीय सूत्र को संतुष्ट करने के लिये सरकार को पुस्तकालयों के लियेः
- वित्त की व्यवस्था करना चाहिये;
- सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम (Public Library Act) पारित करना चाहिये और 3. पुस्तकालय समन्वयकरण (Coordination) अथवा पुस्तकालयों में तालमेल स्थापित करना चाहिये।
वित्त की व्यवस्था (Finance): आज यह भली भांति स्वीकार कर लिया गया है कि जन पुस्तकालय सेवा निः शुल्क होना चाहिये। पुस्तकालय वित्त की व्यवस्था करना सरकार का दायित्व है। वित्त की व्यवस्था निम्नांकित तरीकों से की जा सकती है:
अ. पुस्तकालय पूर्ण रूप से लोकनिधि (Public Fund) से संस्थापित, संचालित और संपालित हों;
ब. पुस्तकालय अधिभार (Library cess) लगाकर; और स. उपरोक्त दोनों के सम्मिलित प्रयास से।
दूसरे तरीके के अन्तर्गत सरकार अधिनियम पारित करके स्थानीय प्राधिकरणों (जैसे नगर महापालिका, नगरपालिका, जिला परिषद आदि) को सम्पत्ति कर पर पुस्तकालय उपकर लगाने का अधिकार देती है। तीसरे तरीके में इस उपकर से जो राशि वसूल होती है, सामान्यतः उसी के समकक्ष राशि राज्य सरकार पुस्तकालयों को अनुदान के रूप में देती है। उपरोक्त तीनों तरीकों के अपने- अपने गुण-दोष हैं। रंगनाथन तीसरे तरीके को अधिक प्रभावकारी मानते थे। प्रणाली कोई भी हो, जन पुस्तकालयों को पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था करना सरकार का
कर्तव्य है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि पर्याप्त धनराशि के अभाव में न वांछित पाठ्य- सामग्री खरीदी जा सकती है, न ही भवन निर्माण हो सकता है, न उपस्कर साज-सज्जा की व्यवस्था हो सकती है और न निपुण कर्मचारियों की नियुक्ति हो सकती है। प्रत्येक पाठक को उसका अभिष्ट ग्रन्थ उपलब्ध करने के लिये पर्याप्त धन जुटाने की व्यवस्था करना सरकार का दायित्व है।
सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम (Public Library Act): सरकार का कर्तव्य है कि जन पुस्तकालयों के संतुलित और स्वस्थ विकास के लिये पुस्तकालय अधिनियम पारित करे। विकसित देशों के पुस्तकालय इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वहाँ पुस्तकालय अधिनियम पारित होने से पुस्तकालयों का विकास व्यवस्थित रूप से हुआ और पुस्तकालय सेवा की गुणवत्ता में सुधार हुआ। अधिक से अधिक पाठकों को पुस्तकालय सेवा प्राप्त होने लगी। निम्नलिखित तत्व पुस्तकालय अधिनियम पारित करने पर बल देते हैं: - पुस्तकालयों की स्थापना, संचालन तथा अनुरक्षण किन्हीं व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा सरकार की दया पर निर्भर नहीं रहता है।
- पुस्तकालयों के लिये पर्याप्त धन की व्यवस्था हो जाती है।
- प्रत्येक स्तर पर अधिकार तथा कर्तव्य निश्चित कर दिये जाते हैं और कोई अस्पष्टता नहीं रहती।
- समस्त राज्य में संतुलित पुस्तकालय सेवा स्थापित करके, पुस्तकालय तंत्र (Library system) का गठन करना संभव होता है। जिसमें समस्त जन पुस्तकालय अलग-अलग न रहकर परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं।
- पुस्तकालयों में समन्वय (Coordination) स्थापित किया जा सकता है।
पुस्तकालय समन्वयकरण (Library Coordination): द्वितीय सूत्र की पूर्ण संतुष्टि के लिये राज्य का कर्तव्य है कि पुस्तकालय तंत्र की स्थापना की जाये अर्थात सम्बद्ध पुस्तकालयों का एक जाल पूरे देश में बिछाया जाये न कि पुस्तकालय अलग-अलग रहें। ‘प्रत्येक पाठक को उसका अभीष्ट ग्रन्थ मिल सके’ से तात्पर्य है ग्रन्थ देश-विदेश में कहीं भी उपलब्ध हो, सम्बन्धित पाठक को प्राप्त होना चाहिये। इसके लिये प्रत्येक पुस्तकालय को अन्य पुस्तकालयों से अन्तरग्रन्थालयीन आदान (Inter-Library loan) पर ग्रन्थ प्राप्त करने की सुविधा होनी चाहिये।
पुस्तकालय समन्वयकरण के द्वारा अधिकाधिक पाठकों को ग्रन्थ उपलब्ध करवाये जा सकते हैं और देश में उपलब्ध साहित्य का अधिकतम उपयोग हो सकता है। पुस्तकालय समन्वयकरण का दायित्व सरकार का है।
पुस्तकालय प्राधिकरण (Library Authority) के कर्तव्य
द्वितीय सूत्र पुस्तकालय प्राधिकरण के निम्नानुसार तीन कर्तव्य निश्चित करता है: - ग्रन्थ चयन
- कर्मचारियों का चयन
- अबाध प्रवेश्य प्रणाली
ग्रन्थ चयनः ग्रन्थ चयन पाठकों की आवश्यकताओं और रुचियों के अनुकूल होना चाहिये। ग्रन्थ चयन का महत्व सीमित आर्थिक साधनों के कारण और अधिक बढ़ जाता है। इस दृष्टि से उपयुक्त ग्रन्थों के चयन के लिये उपयोगकर्ता सर्वेक्षण (User survey) करना उचित है। ग्रन्थ चयनकर्ता को विभिन्न उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए ग्रन्थ चयन करना चाहिये। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शारीरिक दृष्टि से निर्बल पक्ष का ध्यान सदैव रखना चाहिये। इसी प्रकार रोगी, मानसिक रूप से रोगी, दृष्टिहीन, बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, नवसाक्षर, अल्पसंख्यक आदि सभी के उपयोगार्थ ग्रन्थों का चयन करना चाहिये।
कर्मचारियों का चयनः किसी भी पुस्तकालय का सफल और सक्षम संचालन उसके प्रशिक्षित कर्मचारियों पर निर्भर करता है। पुस्तकालय प्राधिकरण का कर्तव्य है कि पर्याप्त संख्या में सुयोग्य, परिश्रमी, सेवा भावी एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों का चयन करें।
अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System): अबाध प्रवेश्य प्रणाली में पुस्तक और पाठक के मध्य कोई व्यवधान नहीं होता और पुस्तकालय सीमा के भीतर वह पुस्तकालय का उपयोग उसी प्रकार से कर सकता है जैसे अपने निजी ग्रन्थ-संग्रह का कर सकता है। इस प्रणाली में उसको उसका वांछित ग्रन्थ प्राप्त करने की सम्भावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। परन्तु अबाध प्रवेश्य प्रणाली में ग्रन्थों के चोरी हो जाने, कट-फट जाने और उनका व्यवस्थापन नष्ट-भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। द्वितीय सूत्र की संतुष्टि के लिये पुस्तकालय प्राधिकरण को यह हानि सहन करने के लिये तत्पर रहना चाहिये।
पुस्तकालय कर्मचारियों के कर्तव्य : द्वितीय सूत्र में पुस्तकालय कर्मचारियों की महती भूमिका है। पुस्तकालय कर्मचारियों को अपने पाठकों की अध्ययन आवश्यकताओं और उपलब्ध पुस्तकों की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिये। उनको पाठकों की सहायता के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिये। हम उनके प्रमुख कर्तव्यों को निम्नानुसार शीर्षकबद्ध कर सकते हैं: - निधानी व्यवस्थापन
- सूचीकरण
- सन्दर्भ सेवा
- अनुरक्षण कार्य
निधानी व्यवस्थापनः ग्रन्थों का व्यवस्थापन सक्षम वर्गीकरण के आधार पर वर्गीकृत क्रम में होना चाहिये। यही क्रम पाठकों के लिये सहायक सिद्ध होता है और उनको अपना वांछित ग्रन्थ प्राप्त करने में समर्थ बनाता है।
सूचीकरणः पुस्तकालय सूची, पुस्तकालय का दर्पण है। वह ‘ज्ञान की कुंजी’ अथवा ‘नेत्रों’ के समान है। पुस्तकालय कर्मचारियों का कर्तव्य है कि सक्षम सूची की संरचना करें। सूची में किसी ग्रन्थ को कई शीर्षकों के अन्तर्गत प्रदर्शित करें। उसको सदैव अद्यतन रखें। ग्रन्थों में निहित अन्तर्वस्तु पाठकों की दृष्टि में लाना भी आवश्यक है अन्यथा पाठकों को उनकी अभीष्ट पाठ्य-सामग्री प्राप्त न हो सकेगी।
सन्दर्भ सेवाः सक्षम और प्रभावशाली संदर्भ सेवा प्रदान करना पुस्तकालय कर्मचारियों का दायित्व है। सन्दर्भ सेवा के द्वारा ही व्यक्तिगत रूप से उपयुक्त पाठक का, उपयुक्त ग्रन्थ से उपयुक्त समय पर सम्पर्क स्थापित करवाया जाता है। इसके लिये सन्दर्भ ग्रन्थालयी को पाठक समुदाय और ग्रन्थों की अपेक्षित जानकारी होना चाहिये। पुस्तकालय कर्मचारी का कर्तव्य पाठक की मांग पर ही केवल ग्रन्थ प्रदान करना नहीं है अपितु उसको अपना वांछित ग्रन्थ खोजने में हर संभव सहायता प्रदान करना है।
अनुरक्षण कार्यः द्वितीय सूत्र की संतुष्टि के लिये यह आवश्यक है कि ग्रन्थों का अनुरक्षण कार्य संतोषजनक ढंग से किया जाये। अबाध प्रवेश्य प्रणाली वाले पुस्तकालयों में, उपयोगकर्ताओं द्वारा ग्रन्थों का व्यवस्थापन बिगाड़ता रहता है। अतः पुस्तकालय कर्मचारियों का दायित्व है कि उसको सतत रूप से ठीक करते रहें। जिन पुस्तकों की जिल्दबन्दी की आवश्यकता है उनकी तत्काल जिल्दबन्दी करवायें। यदि उपरोक्त बिन्दुओं पर समुचित ध्यान दिया जाये तो प्रत्येक पाठक को उसके अभीष्ट ग्रन्थ प्राप्त होने की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है।
2.2.4 पाठकों के कर्तव्य
द्वितीय सूत्र की पूर्ण संतुष्टि के लिये पाठकों के भी कुछ कर्तव्य हैं। उनको समझना चाहिये कि नियमों-विनियमों का निर्माण उनके हित में किया गया है और उनको उनका पालन करना चाहिये। पुस्तकालय एक सार्वजनिक संस्था है और पाठक को पुस्तकालय पाठ्य-सामग्री को उपयोग करने का समान अधिकार है। ग्रन्थों को निर्धारित समय पर वापिस करना चाहिये। उनका विन्यसन नष्ट-भ्रष्ट नहीं करना चाहिये और उनको छुपाना नहीं चाहिये। पुस्तकालय पाठ्य-सामग्री की सुरक्षा करना चाहिये और विशेषाधिकारों की माँग नहीं करना चाहिये। यदि पाठकों द्वारा उपरोक्त सहयोग प्राप्त नहीं होगा तो द्वितीय सूत्र को संतुष्ट करना कठिन हो जायेगा।
तृतीय सूत्र : प्रत्येक ग्रन्थ को उसका उपयुक्त पाठक प्राप्त हो (Every Books its Reader)
इस सूत्र के द्वारा ‘ग्रन्थ’ पर बल दिया गया है जबकि द्वितीय सूत्र द्वारा ‘पाठक’ पर बल दिया गया है। अतः यह द्वितीय सूत्र का पूरक है वैसे दोनों के सहज परिणाम समान हैं।
यह सूत्र पाठ्य-सामग्री के अधिकतम उपयोग पर जोर देता है। रंगनाथन के शब्दों में ग्रन्थ की भवितव्यता (Destiny) पाठक के हाथ में है। एक अनुपयोग (unused) पड़ा ग्रन्थ, ग्रन्थालयी के सिर पर अभिशाप के समान है। पुस्तकें मूक हैं। वे अपने बारे में स्वयं नहीं बता सकतीं है। यहाँ एक विशेष तत्व यह भी है कि जिन पुस्तकों के बारे में पाठकों को जानकारी है उन तक तो वह पहुँच सकते हैं। परन्तु जिन पुस्तकों के बारे में उनको जानकारी नहीं है, उन तक पहुँचने के लिये कुछ उपाय आवश्यक है। अतः आधुनिक पुस्तकालयों में तृतीय सूत्र को संतुष्ट करने और पुस्तकों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये कुछ युक्तियों को अपनाया जाता है जो निम्नानुसार - ग्रन्थ चयन
- आनुवर्गिक विन्यसन
- ग्रन्थों तक पहुंच और अबाध प्रवेश्य प्रणाली
- सूची
- सन्दर्भ सेवा
- लोकप्रिय विभाग
- विस्तरण सेवायें
- पुस्तकालय प्रचार
- ग्रन्थ चयन (Book Selection) प्रत्येक ग्रन्थ को उसका उपयुक्त पाठक प्राप्त हो अथवा समस्त ग्रन्थों को उनके अध्येता प्राप्त हो जायें’ नामक सूत्र को उपयुक्त ग्रन्थ चयन द्वारा बहुत सीमा तक संतुष्ट किया जा सकता है। ऐसा केवल उन ग्रन्थों को चुनकर जिनके उपयोग होने की सम्भावना हो, किया जा सकता है। यदि ग्रन्थ चयन पाठकों की रुचि और आवश्यकता पर आधारित होगा तो समस्त ग्रन्थों को पाठक उपलब्ध हो जायेंगे। तृतीय सूत्र केवल उन ग्रन्थों को क्रय करने की सलाह देता है जिनको अधिकांश पाठकों द्वारा पढ़ने की सम्भावना हो। ऐसे ग्रन्थ जिनकी मांग कुछ ही पाठकों द्वारा हो, क्रय करने की बजाय अन्तराग्रन्थालयीन आदान पर मंगा लेना उचित होगा।
- आनुवर्गिक विन्यसन (Classified Arrangement): यदि ग्रन्थों का विन्यसन, ग्रन्थों के पारस्परिक सम्बन्ध के आधार पर किया जाये तो अधिकांश ग्रन्थों को पाठक मिलने की प्रबल सम्भावना हो जाती है। आनुवर्गिक विन्यसन इसी प्रकार का विन्यसन होता है। सामान्यतः पाठक अपनी आवश्यकता अथवा रुचि को व्यक्त करने में असमर्थ रहते हैं। वे उसको अधिक विस्तृत अथवा संकुचित भाव में व्यक्त करते हैं। यदि पुस्तकालय में सहायक और तर्कसंगत आनुवर्गिक विन्यसन है तो पाठक को अपनी रुचि और आवश्यकतानुसार ग्रन्थों तक पहुँचने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी।
समय-समय पर निधानी विन्यसन में परिवर्तन करके भी पाठकों तथा ग्रन्थों में सम्पर्क स्थापित हो जाने की काफी सम्भावना रहती है। इसी प्रकार नवागत ग्रन्थों को कुछ दिनों तक अलग से प्रदर्शित करने पर उनको शीघ्रातिशीघ्र पाठक मिल जाने की सम्भावना रहती है। - अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System) यदि ग्रन्थों तक पाठकों की पहुँच को सरल और सुगम बनाया जा सके तो प्रत्येक ग्रन्थ को पाठक मिल जाने की अधिक सम्भावना रहती है। अबाध प्रवेश्य प्रणाली में पाठकों तथा पुस्तकों के बीच किसी प्रकार का व्यवधान नहीं रहता है और उनको प्रत्येक ग्रन्थ का परीक्षण करने का अवसर प्रदान किया जाता है। इस प्रकार अधिकांश पुस्तकों को पाठक प्राप्त हो जाते हैं। क्योंकि उनको जिन अनेक पुस्तकों की जानकारी नहीं है, वह भी उनकी दृष्टि में आ जाती हैं और उनमें उनकी रुचि हो सकती है!
इसी प्रकार समय-समय पर, विशेष अवसरों पर विशेष अनुक्रम निर्मित करके भी अनेक ग्रन्थों के लिये पाठक प्राप्त किये जा सकते हैं जैसे स्वतन्त्रता दिवस, गांधी जयंती, गणतन्त्र दिवस आदि। - सूची (Catalogue): सक्षम, व्याख्यात्मक, भली भांति निर्मित और अद्यतन सूची जो पाठक को पूर्णतया सुलभ हो, तृतीय सूत्र को संतुष्ट करने में सहायक सिद्ध होती है। ग्रन्थमाला प्रविष्टियाँ और अन्तर्विषयी प्रविष्टियाँ (Cross Reference Entries) विशेष रूप से तृतीय सूत्र की मांग को ही संतुष्ट करती हैं। अकसर ऐसा होता है कि स्वतः ग्रन्थ के बजाय सूची में उसका विवरण पाठकों को अधिक आकर्षित करता है। वैश्लेषिक प्रविष्टियों (Analytical Entries) के द्वारा भी संगत पुस्तकों को पाठक मिलने की काफी संभावना रहती है।
- सन्दर्भ सेवा (Reference Service): जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है, पुस्तकें अपने बारे में स्वयं नहीं बता सकती है। अतः एक ऐसी एजेन्सी की आवश्यकता होती है जो उनकी वकालत कर सके। सन्दर्भ ग्रन्थालयी एक ऐसी ही ऐजेन्सी है। साधारणतया पाठक आनुवर्गिक विन्यसन और सूची की जटिलताओं को समझने में अनभिज्ञ रहते हैं। सक्षम तथा प्रभावशाली व्यक्तिगत सेवा द्वारा ग्रन्थों तथा पाठकों में सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। सन्दर्भ ग्रन्थालयी पुस्तकों के प्रचारक के रूप में कार्य करता है।
- लोकप्रिय विभाग (Popular Department) पुस्तकालय में अनेक लोकप्रिय विभाग जैसे पत्र-पत्रिका प्रकोष्ठ, समाज शिक्षा, फिल्म शो आदि स्थापित करके सामान्य पाठकों को पुस्तकालय के प्रति आकर्षित किया जा सकता है। नये पाठकों के आने से ऐसे अनेक ग्रन्थों को पाठक प्राप्त होने की सम्भावना बढ़ जाती है जो अब तक बिना उपयोग के पड़े हैं।
- विस्तरण सेवायें (Extension Services): आधुनिक जन पुस्तकालय सामाजिक केन्द्र अथवा सामुदायिक केन्द्र (Community Centre) के रूप में कार्य करते हैं और इस प्रकार पारम्परिक पुस्तकालय सेवा के अतिरिक्त व्याख्यान, संगीत, नाटक तथा प्रदर्शनियों आदि का आयोजन करते हैं। अध्ययन परिमण्डलों का गठन करते हैं। निरक्षरों के लिये पुस्तकों और समाचार पत्रों आदि का वाचन करते हैं। इसी प्रकार बच्चों को कहानियाँ और अन्य रोचक सामग्री का वाचन किया जाता है। इन सबको विस्तरण सेवाओं का नाम दिया गया है। इनके द्वारा अनेक सम्भाव्य पाठकों को पुस्तकालय की ओर आकर्षित करके और वास्तविक पाठकों में परिवर्तित करके तृतीय सूत्र को सन्तुष्ट किया जा सकता है।
- पुस्तकालय प्रचार सामान्यतः जनसाधारण में पठन-पाठन की रूचि का अभाव देखा जाता है। उन्हें पुस्तकें पढ़ने को प्रेरित करने की आवश्यकता है। आधुनिक पुस्तकालय की तुलना एक दुकान से की जाती है। जिस प्रकार प्रचार, आधुनिक व्यापार का एक सक्षम साधन है उसी प्रकार पुस्तकालय में संग्रहित प्रत्येक ग्रन्थ के लिये पाठक प्राप्त करने के लिये भी प्रचार एक महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हो सकता है। रंगनाथन के अनुसार, “आज जब पुस्तकालय अपना कार्यक्षेत्र बढ़ा रहा है, अपना दृष्टिकोण परिवर्तित कर रहा है और अपनी प्रकृति तथा कार्यों तक में परिवर्तन कर रहा है, ऐसी स्थिति में प्रचार के अभाव में जनता को वर्तमान गतिविधियों की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती है।”
पुस्तकालय प्रचार दो प्रकार का होता है:
क. सामान्य प्रचार : इस प्रचार में किसी पुस्तकालय विशेष को प्रचारित नहीं किया जाता अपितु ग्रन्थों तथा पुस्तकालय की उपयोगिता को विज्ञापित किया जाता है।
ख. व्यक्तिगत प्रचार : इससे तात्पर्य किसी पुस्तकालय विशेष के प्रचार से है।
प्रचार के प्रमुख सिद्धान्त : निरन्तरता, विभिन्नता, नवीनता, स्पष्टता तथा प्रभावशीलता आधुनिक प्रचार के प्रमुख सिद्धान्त हैं।
प्रचार के प्रमुख साधन : पुस्तकालय पत्रिका, इश्तहार (posters), पर्चे (handbills), प्रदर्शन कक्ष, रेडियो, समाचार पत्र, व्याख्यान और प्रदर्शनियाँ आदि प्रचार के प्रमुख साधन हैं।
चतुर्थ सूत्र : पाठक का समय बचाओ (Save the Time of the Reader)
पुस्तकालय विज्ञान का चतुर्थ सूत्र भी द्वितीय सूत्र की भांति उपयोगकर्ताओं की ओर से उपागम करता है। इस सूत्र की मांग है कि पाठकों का समय व्यर्थ नष्ट नहीं होना चाहिये। उपयोगकर्ता का समय दो प्रकार का हो सकता है - वस्तुनिष्ठ (Objectives) समय: वह समय है जो किसी पाठक द्वारा ग्रन्थ या सूचना की प्रतीक्षा में वास्तव में बिताया जाता है जबकि
- व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) समय वह समय है जो पाठक को अनुभव होता है। इन दोनों प्रकार के समय की बचत होना आवश्यक है। इसके साथ ही उपयोगकर्ताओं के समय की बचत के साथ कर्मचारियों के समय की बचत करना चाहिये।
यह सूत्र पुस्तकालय संचालन में सुधारों तथा पाठकों को अधिकाधिक सुविधायें देने पर बल देता है। रंगनाथन के अनुसार “… यह पुस्तकालय प्रशासन में अनेक सुधारों को जन्म देने के प्रति उत्तरदायी है। भविष्य में इसमें और भी सुधारों को प्रभावशील करने हेतु प्रबल सम्भाव्यता है।”
चतुर्थ सूत्र द्वारा प्रवेशित प्रमुख सुधार निम्नांकित से सम्बन्धित है: - पुस्तकालय का स्थान निर्धारण
- अबाध प्रवेश्य प्रणाली और ग्रन्थों तक पहुँच
- संदर्शिकायें
- निधानी विन्यसन
- सूचीकरण
- सहकारी तथा केन्द्रीकृत वर्गीकरण तथा सूचीकरण
- सन्दर्भ सेवा
- ग्रन्थों का परिसंचरण और आदान-प्रदान प्रणाली
- पुस्तकालय कार्य पद्धति में पत्रक प्रणाली का उपयोग
- ग्रन्थसूची संकलन
- पुस्तकालय स्थान निर्धारण (Location): पुस्तकालय स्थान निर्धारण के सम्बन्ध में चर्चा प्रथम सूत्र के अन्तर्गत की जा चुकी है। पुस्तकालय केन्द्रीय स्थान पर संस्थापित करके पाठकों का समय बचाया जा सकता है। उचित और पर्याप्त संख्या में शाखा पुस्तकालय और विभागीय पुस्तकालय स्थापित करके भी पाठकों का समय बचाया जा सकता है। मितव्ययता की
दृष्टि से प्रशासन का एक सामान्य सिद्धान्त है ‘प्रशासन को केन्द्रित करना चाहिये और सेवा को विकेन्द्रित करना चाहिये।’ दूरस्थ क्षेत्रों को चल पुस्तकालय द्वारा पुस्तकालय सेवा प्रदान करना चाहिये। संक्षेप में ऐसा कहा जाता है कि पुस्तकालय पहुँचने में किसी भी पाठक को आधा किलोमीटर से अधिक न चलना पड़े। - अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System): अप्रवेश्य प्रणाली में पाठक, सूची के माध्यम से ग्रन्थ चुनकर पर्ची भर कर देता है और पुस्तकालय कर्मचारी द्वारा उसको खोज कर लाने तक प्रतीक्षारत रहता है। ग्रन्थ न मिलने पर पुनः यही प्रक्रिया दोहराई जाती है। ग्रन्थ मिल जाने पर भी वह पाठक को अनुपयुक्त सिद्ध हो सकता है। अतः उसका पर्याप्त समय नष्ट होता है। इसके साथ-साथ वह नीरसता भी अनुभव करता है। अबाध प्रवेश्य प्रणाली में वह स्वयं ग्रन्थ भण्डार में जाकर ग्रन्थ चुनता है। हो सकता है उसका पर्याप्त समय ग्रन्थ चुनने में लग जाये। परन्तु क्योंकि वह उस कार्य में व्यस्त रहता है अतः नीरसता अनुभव नहीं करता। इस प्रणाली में कर्मचारियों की संख्या में भी पर्याप्त बचत होती है।
- संदर्शिकायें (Guides) पर्याप्त संदर्शिकाओं की व्यवस्था करके पाठकों की वांछित सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ उनके समय की रक्षा की जा सकती है। संदर्शिकाओं की सर्वाधिक आवश्यकता ग्रन्थ भण्डार कक्ष (Stack Room) में होती है। संदर्शिकायें अनेक प्रकार की होती हैं जैसे ‘पुस्तकालय के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी’, नियोजन संदर्शिकायें (Plan guides), निधानी संदर्शिकायें (Shelf guides), संकेत संदर्शिकायें आदि।
- निधानी विन्यसन (Shelf Arrangement): यदि ग्रन्थों का विन्यसन परस्पर सम्बन्ध के आधार पर किया जाये तो उपयोगकर्ताओं को अधिक सुविधाजनक होता है और उनका समय भी बचता है। चतुर्थ सूत्र को संतुष्ट करने के लिये आवश्यकतानुसार असतत क्रम (Broken order) को भी अपनाना पड़ता है। उदाहरणार्थ एक जन पुस्तकालय में कथा- कहानियों, उपन्यास, नाटक, जीवन चरित्र आदि की अधिक मांग होती है। अतः उनको ग्रन्थ भण्डार में मुख्य द्वार के समीप रखना चाहिये और शेष ग्रन्थों को आवश्यकतानुसार उनके दोनों ओर रखना चाहिये। निधानी व्यवस्थापन के सन्दर्भ में रंगनाथन ने निम्नांकित सिद्धान्त को मान्यता दी है। जिसे Apupa पद्धति कहा जाता है।
A = Alien
P Penumbra
U UMBRA
A Alien Alien
और कम उपयोगी ग्रन्थ
कम उपयोगी ग्रन्थ
सर्वाधिक उपयोगी ग्रन्थ
P = Penumbra कम उपयोगी ग्रन्थ
और कम उपयोगी ग्रन्थ
यहाँ UMBRA से तात्पर्य सर्वाधिक उपयोग्य ग्रन्थ हैं और उसके दोनों ओर कम उपयोग्य ग्रन्थ और उसके दोनों ओर सबसे कम उपयोग्य ग्रन्थ व्यवस्थित करने चाहिये।
नवागत पुस्तकों की मांग बहुत अधिक होती है। अतः उनको अलग से परिसंचरण पटल के समीप रखना चाहिये। - सूचीकरण (Cataloguing): भली भांति निर्मित, सक्षम, अद्यतन (up-to-date) सूची पाठकों तथा कर्मचारियों का समय बचाने में सहायक सिद्ध होती है। इसके द्वारा पाठकों की विभिन्न अभिगमों को सन्तुष्ट करके पाठक का समय बचाया जा सकता है। विषय वैश्लेषिक प्रविष्टियों (subject analytical entries) के अभाव में पाठकों के समय की हानि होती है। इनके अभाव में अनेक पाठकों का समय पुनः पुनः नष्ट होता है।
- केन्द्रीकृत तथा सहकारी वर्गीकरण और सूचीकरण (Centralized and Co- operative Classification and cataloguing) जैसाकि ऊपर कहा गया है, पाठकों का समय बचाने के लिये कर्मचारियों का समय बचाना आवश्यक है। अतः केन्द्रीकृत वर्गीकरण और सूचीकरण की अनुशंसा की जाती है। इसमें विभिन्न पुस्तकालय इस कार्य से मुक्त हो जाते हैं और मुद्रित सूची पत्रक (printed cards) क्रय कर लेते हूँ। कर्मचारियों का समय बचाने के अतिरिक्त इसके अन्य प्रमुख लाभ मितव्ययता, एकरूपता, परिशुद्धता, उन्नत मानकीकरण आदि हैं।
- सन्दर्भ सेवा (Reference Service): आधुनिक पुस्तकालयों में उपयोगकर्ताओं को पाठ्यसामग्री चुनने, उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करने और उनके समय की क्षति को रोकने के लिये ही सन्दर्भ सेवा का प्रचलन हुआ है। वर्गीकरण पद्धति और सूचीकरण पद्धति की जटिलतायें भी पाठक स्वतः नहीं समझ सकता है। सन्दर्भ सेवा अनौपचारिक व्यक्तिगत सहायता है। निःसंदेह सक्षम सन्दर्भ सेवा के दवारा ही पाठकों के समय के क्षय की रक्षा की जा सकती है।
- ग्रन्थों का परिसंचरण और आदान-प्रदान प्रणाली (Circulation): ग्रन्थों की परिसंचरण विधि में पाठक और कर्मचारियों का कम से कम समय लगना चाहिये। पहिले पुस्तकालयों में ग्रन्थ, खाता प्रणाली या पंजी प्रणाली द्वारा आदान-प्रदान किये जाते थे जो बढ़ा समयसाध्य कार्य था। अब पत्रक प्रणालियों द्वारा जिनमें न्यूआर्क और ब्राउन सर्वप्रथम हैं, ग्रन्थों का आदान-प्रदान होता है जिनमें पाठक और कर्मचारियों का अपेक्षाकृत बहुत कम समय लगता है। विदेशों में यांत्रिक विधियों का उपयोग ग्रन्थ परिसंचरण के लिये किया जाता है। भारत में यांत्रिक विधियों का उपयोग ग्रन्थ परिसंचरण के लिए किया जाने लगा हैं।
- पुस्तकालय कार्यप्रणाली में पत्रक पद्धति का उपयोगः पुस्तकालय कर्मचारियों का समय बचाने के लिये पुस्तकालय कार्य प्रणाली में पंजी प्रणाली के स्थान पर पत्रक प्रणाली ही उपयुक्त है क्योंकि एक ही पत्र आवश्यकतानुसार अनेक स्थानों और कार्यों के लिये प्रयुक्त हो सकता है और कार्य में अधिक गतिशीलता उत्पन्न हो जाती है।
- ग्रन्थसूचियाँ (Bibliography): पुस्तकालय कर्मचारियों द्वारा पाठकों की मांग अथवा सम्भाव्य उपयोग पर आवश्यकतानुसार अध्ययन सूचियाँ (Reading lists) संकलित करना चाहिये। आजकल कई प्रकार की ग्रन्थसूचियाँ संकलित की जाती हैं जो ग्रन्थ चुनने और वर्गीकरण और सूचीकरण कार्य में सहायक सिद्ध होती हैं। इनके द्वारा भी पाठक के समय की रक्षा होती है।
पंचम सूत्रः पुस्तकालय एक विकासशील संस्था है (Library is a Growing Organism)
पुस्तकालय विज्ञान का पंचम सूत्र, उसकी प्रकृति का द्योतक है और जो पुस्तकालय नियोजन और संगठन में भी सहायक सिद्ध होता है। हम सब जानते हैं एक विकासशील संस्था ही उत्तरजीवित (Survive) रह सकती है। रंगनाथन के शब्दों में, “एक विकासशील संगठन नई सामग्री ग्रहण करता है, पुरानी सामग्री का त्याग करता है, अपने आकार में परिवर्तन करता है और नई शक्ल तथा स्वरूप ग्रहण करता है।”
वृद्धि का अर्थ जीवन है। जीवंत सत्ता में वृद्धि अथवा विकास दो प्रकार का होता है: - बाल विकास (Child growth)
- वयस्क विकास (Adult growth)
बाल विकास से तात्पर्य उस विकास से है जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जबकि वयस्क विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। सभी पुस्तकालय अपनी प्रारम्भिक अवस्था में बाल विकास की अवस्था में रहते हैं और कुछ समय पश्चात वयस्क विकास अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। परन्तु राष्ट्रीय पुस्तकालय सदैव ही बाल विकास अवस्था में रहता है।
पुस्तकालय के तीन प्रमुख घटक हैं: - ग्रन्थ
- पाठकगण
- कर्मचारीगण
पुस्तकालय के इन तीनों घटकों में बढ़ोतरी होती है। बाल विकास अवस्था में वह स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। किन्तु वयस्क विकास अवस्था में दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि नवीन ग्रन्थ, पाठक तथा कर्मचारी आते हैं परन्तु पुराने निकल जाते हैं। राष्ट्रीय पुस्तकालय में पाठ्य- सामग्री सदैव सुरक्षित रखी जाती है और निष्कासित नहीं की जाती है। अतएव वह सदैव बाल विकास अवस्था में ही रहता है।
अब हम पुस्तकालय विकास के इन तीन घटकों पर अलग-अलग विचार करेंगे। - ग्रन्थ (Documents)
ग्रन्थ भण्डार कक्ष (Stack Room): एक विकासशील जीवंत पुस्तकालय में नवीन ग्रन्थ रहते हैं। जिसका ग्रन्थ भण्डार तथा निधानियों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। पुस्तकालय भवन की योजना बनाते समय इस तथ्य को दृष्टिगत रखना चाहिये। एवं कालान्तर में बढ़ोतरी का प्रावधान होना चाहिये। ग्रन्थ निधानियों में समरूपता होनी चाहिये। उनके फलक संभजनीय (Adjustable) होने चाहिये। निधानियों पर लगी हुई संदर्शिकायें (Guides) भी संभजनीय होनी चाहिये। सूची तथा सूची कक्षः प्रत्येक ग्रन्थ के लिये औसतन छः प्रविष्टियों का निर्माण किया जाता है। अतः सूची का विकास ग्रन्थ भण्डार की अपेक्षा छः गुना होता है। पुस्तकालय भवन की योजना बनाते समय इस तथ्य को सदैव दृष्टिगत रखना चहिये।
रंगनाथन के अनुसार, ‘पुस्तकालय सूची के भौतिक स्वरूप का निर्धारण पुस्तकालय विज्ञान का पंचम सूत्र करता है।’
वस्तुतः सूची ऐसी होनी चाहिये जिसमें नवागत ग्रन्थों की प्रविष्टियों को उचित स्थान पर सगाविटष्ट किया जा सके और गतिविधि, गुमी हुई और जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थों की प्रविष्टियों को सरलता से निष्कासित किया जा सके। यह सुविधा, पत्रक स्वरूप सूची में प्राप्त होती है।
समय के साथ सूची के नये भौतिक स्वरूपों का विकास किया जा रहा है। अब सूची का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है। जिसे हम ऑनलाइन पब्लिक एक्सीस केटलॉग (Online Public Access Catalogue) कहते है।
वर्गीकरण तथा सूचीकरण पद्धतिः ज्यों-ज्यों पुस्तकालय का विकास होता है, इनकी तीव्र आवश्यकता तथा महत्व अनुभव होता है। अतः आरम्भ से ही सर्वव्यापी, आतिथ्यशील, विकासशील एवं सक्षम वर्गीकरण पद्धति का चयन करना चाहिये। इसी प्रकार सूचीकरण के लिये एक सक्षम सूची संहिता का चुनाव आवश्यक है जो नयी प्रकार की पाठ्य सामग्री के सूचीकरण के लिये भी उपयोगी सिद्ध हो।
- पाठकगण
अध्ययन कक्षः पाठकों की संख्या बढ़ने के साथ विस्तृत अध्ययन कक्ष की आवश्यकता पड़ेगी। अतः पुस्तकालय भवन की योजना बनाते समय इस तथ्य को भूलना नहीं चाहिये।
सन्दर्भ सेवाः ज्यों-ज्यों ग्रन्थ संग्रह का विकास होता है, पाठकों को सन्दर्भ सेवा की अधिक आवश्यकता पड़ती है। नवागत ‘पुस्तकों’ से भी पाठकों को परिचित करवाना आवश्यक है।
उपयोगकर्ता शिक्षा (User Education): पुस्तकालय विकास के साथ उपयोगकर्ता शिक्षा की भी आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य भी सन्दर्भ कर्मचारियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इसके अन्तर्गत पुस्तकों को पुस्तकालय से परिचित करवाया जाता है, उसके नियमों-विनियमों से परिचित करवाया जाता है, विभिन्न सेवाओं, सुविधाओं से परिचित करवाया जाता है, सूची के उपयोग के सम्बन्ध में जानकारी दी जाती है और सन्दर्भ ग्रन्थों की जानकारी दी जाती है।
ग्रन्थ परिसंचरण (Circulation): पाठकों की संख्या में वृद्धि के साथ ऐसी ग्रन्थ निर्गम विधि (Issue system) की आवश्यकता पड़ती है जिसमें शीघ्रातिशीघ्र अधिक से अधिक पाठकों को ग्रन्थ निर्गम आगम किये जा सकें। इस दृष्टि से भारतीय परिस्थितियों में ब्राउन परिसंचरण प्रणाली (Brown charging system) उचित ठहरती है।
अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System): पाठकों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ अप्रवेश्य प्रणाली (Closed access system) अव्यवहारिक हो जाती है। अतः अबाध प्रवेश्य प्रणाली को अपनाना आवश्यक है। आधुनिक विशाल जन पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालयों में अबाध प्रवेश्य प्रणाली ही एक मात्र विकल्प है। - कर्मचारीगण
ग्रन्थों और पाठकों की बढ़ोतरी के साथ पुस्तकालय कार्य की भी वृद्धि होती है। अतः पुस्तकालय प्राधिकरण को कर्मचारियों की वृद्धि के लिये सहर्ष प्रस्तुत रहना चाहिये। रंगनाथन ने इसके लिये एक कर्मचारी सूत्र (Staff formula) का निर्माण किया है। जिसका अनुसरण किया जा सकता है। यद्यपि समय परिवर्तन के साथ कर्मचारी सूत्र में भी परिवर्तन और संशोधन की आवश्यकता है।
सारांश पुस्तकालय विज्ञान के उपरोक्त पंच सूत्र अत्यंत सरल दृष्टिगत होते हैं वस्तुतः ये सूत्र अत्यंत सारगर्भित हैं जिसमें पूरा पुस्तकालय तथा सूचना विज्ञान समाहित है। प्रथम तीन सूत्र प्रमुख रूप से अधिकाधिक पुस्तकालय पाठ्य सामग्री का अधिकाधिक पाठकों द्वारा उपयोग पर बल देते हैं। प्रथम सूत्र ‘ग्रन्थ उपयोगार्थ हैं एक आधारभूत सूत्र है। अन्य दो सूत्र उसके सहज परिणाम है। चतुर्थ सूत्र उपयोगकर्ता के समय की रक्षा पर बल देता है जिसमें पुस्तकालय प्रणाली में सुधार लाने की भरपूर संभाव्यतायें हैं। पंचम सूत्र, प्रथम चार सूत्रों जो पुस्तकालय सेवा के प्रति अत्यंत उत्साहित हैं पर किसी सीमा तक नियंत्रण रखता है। यह सूत्र पुस्तकालय की प्रकृति का द्योतक है और उसके नियोजन के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त प्रस्तुत करता है।
वस्तुतः यह समस्त सूत्र ‘उपयोगकर्ता केन्द्रित हैं। इनके निहितार्थ दूरगामी हैं। इन्होंने पुस्तकालय तथा सूचना विज्ञान के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है और भविष्य में भी करते रहेंगे। इन सूत्रों का प्रतिपादन करके रंगनाथन ने पुस्तकालय विज्ञान को ‘विज्ञान’ का स्तर प्राप्त करने में बल प्रदान किया है और एक नई दिशा प्रदान की है।
अभ्यासार्थ प्रश्न
- ‘ग्रन्थ उपयोगार्थ है’ नामक सूत्र की संतुष्टि के लिये विभिन्न उपायों की चर्चा कीजिये।
- द्वितीय सूत्र की संतुष्टि के लिये सरकार के कर्तव्यों की व्याख्या कीजिये।
- ‘प्रत्येक ग्रन्थ को उसका उपयुक्त पाठक प्राप्त हो’ नामक सूत्र की संतुष्टि के लिये कौन-कौन से उपाय करने चाहिये?
- ‘पुस्तकालय कार्य प्रणाली में अनेक सुधार, ‘पाठक का समय बचाओं’ नामक सूत्र के द्वारा लाये गये हैं और इसमें कितने ही अन्य सुधार लाने की संभाव्यतायें हैं। विवेचना कीजिये।
- ‘पुस्तकालय एक विकासशील संस्था है।’ नामक सूत्र की व्याख्या कीजिये और इसके निहितार्थों का वर्णन कीजिये।