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संविधान (Constitution)

संविधान (Constitution)
‘Constitution’ मुख्यतः लैटिन शब्द ‘Constitutio’ से बना है, जिसका अर्थ है “महत्त्वपूर्ण विधि”। संविधान लिखित अथवा अलिखित नियमों का वह संग्रह है, जिसके अनुसार किसी देश का शासन चलाया जाता है। 1787 ई. में बने अमेरिकी संविधान को आधुनिक युग का पहला लिखित संविधान माना गया है। संविधान का महत्त्व बताते हुए के.एम. मुंशी ने संविधान को ‘राज्य की आत्मा’ कहा है।
संवैधानिक विकास (Constitutional Development)
भारत में संवैधानिक विकास को एक लम्बी विकास यात्रा तय करनी पड़ी है। भारत में अंग्रेज 31 दिसम्बर, 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में, व्यापार करने आए। महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के अधिकार प्रदान किए गए। कम्पनी के शासन को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा विभिन्न हैं- एक्ट बनाए गये जो इस प्रकार है –
कम्पनी का शासन (1773 से 1857 तक)
• 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट (विनियमन अधिनियम) (Regulating Act, 1773)

  • इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्त्व है, क्योंकि
  1. भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कार्यों को नियमित तथा नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार का यह पहला कदम था।
  2. इसके द्वारा पहली बार कम्पनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली।
  3. इसके द्वारा भारत में केन्द्रीय प्रशासन की नींव रखी गई।
  4. इस अधिनियम ने कम्पनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया और सुनिश्चित शासन पद्धति का श्रीगणेश किया।
    अधिनियम की विशेषताएँ
  • इस अधिनियम द्वारा बंगाल के ‘गवर्नर’ को बंगाल का ‘गवर्नर जनरल’ बनाया गया तथा लार्ड वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के प्रथम गवर्नर जनरल बने।
  • बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों ‘बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया। • गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद् का गठन किया गया। • 1774 में फोर्ट विलियम (कलकत्ता) में ‘एपेक्स न्यायालय’ के रूप में उच्चतम न्यायालय की स्थापना’ की गई। • ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ का गठन किया गया जिसके माध्यम से ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया।
    विशेष
  • ईस्ट इंडिया कम्पनी रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773 जिसे रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773 कहा जाता है, के खण्ड XIII के अन्तर्गत इंग्लैण्ड के सम्राट को बंगाल के फोर्ट विलियम (कलकत्ता) में एक उच्चतम न्यायालय (Supreme Court of Judicature) स्थापित करने का अधिकार दिया गया था। सम्राट जार्ज तृतीय ने उक्त अधिकार का प्रयोग करते हुए 26 जुलाई, 1774 को कलकत्ता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीशों का प्रावधान था। सर इलिजा इम्पे (Sir Elijah Impey) इसके प्रथम न्यायाधीश थे। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल सम्राट की इच्छा (पर्साद पर्यन्त) पर निर्भर था। इन्हें किंग्स बैंच की शक्तियाँ प्राप्त थीं।
  • कलकत्ता के उच्चतम न्यायालय को बन्दी प्रत्यक्षीकरण, उत्प्रेषण, परमादेश, त्रुटि विषयक रिट (writs) जारी करने की शक्ति प्राप्त थी।
  • मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीशों द्वारा अनुमोदित तीन नामों में से एक व्यक्ति को सपरिषद् गवर्नर जनरल द्वारा ‘शैरिफ’ पदनाम से नियुक्त किया जाता था, जिसका मुख्य कार्य न्यायालय के ‘आदेशों’ का निष्पादन करना और न्यायालय द्वारा बाधित व्यक्ति को कारागार में बन्दी बनाए रखना आदि था।
    पिट्स इण्डिया अधिनियम (Pitts India Act, 1784) रेगुलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए यह अधिनियम लाया गया था। इस अधिनियम का नाम तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट्स द यंगर के नाम पर रखा गया।
    विशेषताएँ
    •कम्पनी के राजनैतिक तथा वाणिज्यिक कार्यों को पृथक्- पृथक् कर दिया।
    इसके तहत भारत से सम्बन्धित मामलों को ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाया गया।
  • कम्पनी के राजनीतिक मामलों के संचालन के लिए ‘बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल’ या नियंत्रक मंडल की स्थापना की गई। • इसी एक्ट में भारत में कम्पनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र कहा गया।
    पवित्र खण्ड नीति ( Pious Clauses)
  • 1813 के चार्टर एक्ट के अन्तर्गत इंग्लिश मिशनरियों को भारत में कार्य करने की अनुमति ब्रिटिश सरकार के ‘पवित्र खण्ड’ (Pious Clauses) की नीति के तहत दी गयी। इस प्रावधान के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशक मंडल के पूर्व सदस्य चार्ल्स ग्रान्ट (Charles Grant) ने लाबिंग की थी।
    1833 का चार्टर अधिनियम (Charter Act, 1833) • ब्रिटिश भारत के केन्द्रीयकरण की दिशा में यह अधिनियम निर्णायक कदम था। इसकी मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-
    विशेषताएँ
  • इसके तहत बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा उसे समूचे देश के प्रशासन का कार्यभार सौंपा गया। लार्ड विलियम बैटिंक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बनाए गए।
    ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार की पूर्ण समाप्ति कर दी गई।
    ‘. गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में चौथे सदस्य के रूप में लार्ड मैकाले की नियुक्ति की गई। मैकाले को आधुनिक शिक्षा का जनक माना जाता है।
    भारत में कानूनों को संचालित तथा सुधारने के लिए एक विधि आयोग की स्थापना की गई।
    1833 के चार्टर अधिनियम को सुभाष कश्यप के अनुसार भारत के केन्द्रीय विधानमंडल की गंगोत्री कहा जा सकता है।
    1853 का चार्टर अधिनियम (Charter Act-1853)
    ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमों की श्रृंखला में यह अंतिम अधिनियम था विशेषताएँ
    सम्पूर्ण भारत के लिए एक विधामण्डल की स्थापना की बात कही गई।
    गवर्नर जनरल की परिषद् के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया गया।
    इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगी परीक्षा व्यवस्था का शुभारम्भ किया। इस प्रकार, विशिष्टः सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई।
    प्रथम बार भारतीय केन्द्रीय विधान परिषद् में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारम्भ किया। लार्ड डलहौजी ने प्रसन्न कुमार टैगोर को गवर्नर जनरल परिषद् का सचिव नियुक्त किया। विधान परिषद् की पहली बैठक 20 मई, 1854 को हुई।
    ताज का शासन (1858 से 1947 तक)
    भारत शासन अधिनियम (Government of India Act, 1858)
  • इस महत्त्वपूर्ण कानून का निर्माण 1857 की क्रांति के बाद किया गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम के नाम से प्रसिद्ध इस कानून की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं- विशेषताएँ
    इसके तहत ईस्ट इंडिया कम्पनी को समाप्त कर दिया गया तथा भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया अर्थात् ब्रिटिश ताज के अधीन चला गया।
  • इस अधिनियम से गवर्नर जनरल की शक्ति पहले की अपेक्षा बढ़ गई। उसे ‘वायसराय’ उपाधि प्रदान की गयी। गवर्नर जनरल देशी राज्यों के सम्बन्धों के सिलसिले में ‘वायसराय’ कहलाने लगा। लार्ड कैनिंग भारत के पहले वायसराय बने।
    भारत का शासन ब्रिटिश ताज की ओर से चलाने के लिए भारत मंत्री या भारत सचिव (Secretary of State for India) पद का सृजन किया गया तथा उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद् का गठन किया गया।
    ● भारत सचिव ब्रिटिस कैबिनेट का सदस्य होता था तथा यह भारत के प्रशासन का निरीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण करता था। एवं सम्पूर्ण भारत के प्रशासन के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था। (सर चार्ल्स वुड प्रथम भारत सचिव बने। ) बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स (निदेशक बोर्ड) तथा बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल (नियंत्रण बोर्ड) की समाप्ति कर दी गई।
    भारतीय परिषद् अधिनियम (Indian Council Act-1861)
    विशेषताएँ
  • केंन्द्र तथा प्रान्तों में विधानपरिषदों की स्थापना की गई। विभागीय प्रणाली या ‘पोर्टफोलियो सिस्टम’को इसने वैधानिक मान्यता प्रदान की। इस प्रकार, भारत में मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई जिसके जनक लार्ड कैनिंग माने जाते हैं।
  • गवर्नर जनरल को आपातकाल में विधानपरिषद् की अनुमति के बिना अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया गया तथा विधेयक पर वीटो की शक्ति भी प्रदान की गई।
  • इसके तहत भारत में पहली बार प्रतिनिधि संस्थाओं को लाया गया अर्थात् विधि निर्माण की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई।
  • कलकत्ता, मुम्बई तथा मद्रास में उच्च न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
    भारत में अध्यादेश : ऐतिहासिक स्वरूप
    गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने की असाधारण शक्ति 1861 के भारतीय परिषद अधिनियम की धारा 22 के अन्तर्गत प्रदान की गयी। इस शक्ति का प्रयोग गवर्नर जनरल परिषद् के बिना ही स्व-विवेक से कर सकता था। इस अध्यादेश की अवधि मात्र छः माह होती थी।
  • यद्यपि संविधान निर्माताओं द्वारा जब राष्ट्रपति की अध्यादेश शक्ति पर विचार किया जा रहा था, तब वे भारत शासन अधिनियम, 1935 की धारा 42 से प्रभावित थे। इसका उल्लेख स्वयं संवैधानिक सलाहकार बी.एन. राव द्वारा अक्टूबर, 1947 में तैयार प्रथम प्रारूप संविधान में अध्यादेश सम्बन्धी प्रावधान के सीमान्त नोट में देखा जा सकता है।
    भारत परिषद् अधिनियम, 1892 (Indian Council Act, 1892) इस अधिनियम द्वारा पहली बार निर्वाचन पद्धति की शुरुआत की गई, परन्तु यह पद्धति परोक्ष निर्वाचन की थी अर्थात् केन्द्रीय विधानमण्डल में 5 गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति प्रान्तीय विधान मण्डल के सदस्यों द्वारा की जानी थी। गवर्नर जनरल की विधान परिषद् का नाम भारतीय विधान परिषद् हो गया ।
  • परिषद् के सदस्यों को सीमित मात्रा में प्रश्न पूछने तथा बजट पर विचार-विमर्श का अधिकार प्रदान किया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा संसदीय शासन परोक्ष रूप से प्रारम्भ हुआ तथा प्रतिनिधि शासन की नींव डाली गई। सर फिरोजशाह मेहता पहले निर्वाचित भारतीय सदस्य थे ।
  • भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 की धारा 2 के अंतर्गत कुछ शर्तों के अधीन वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया था। किन्तु बजट की एक-एक मद पर नहीं अपितु समग्र रूप से ही विचार हो सकता था।
    भारतीय विधान परिषद में पहला प्रश्न 16 फरवरी, 1893को पूछा गया था।
    • ज्ञात रहे भारत में वार्षिक वित्तीय विवरण तैयार करने और विधायिका के सामने प्रस्तुत करने की पद्धति 1860 में जेम्स विलसन द्वारा प्रारम्भ की गयी। पहला बजट 18 फरवरी, 1860 को पेश किया गया था।
    भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 (मार्ले-मिण्टो सुधार ) (Indian Council Act, 1909)
    . इस अधिनियम को ‘मार्ले-मिण्टो सुधार’ भी कहा जाता है क्योंकि उस समय लार्ड मार्ले भारत के सचिव तथा लाई मिण्टो भारत के तत्कालीन वायसराय थे। सर अरुण्डेल समिति की रिपोर्ट के आधार पर इसे फरवरी, 1909 में पारित किया था। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-
    मुसलमानों के लिए पृथक तथा साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत हुई, जिसके अन्तर्गत मुस्लिमों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया, अर्थात् मुस्लिम सदस्यों का निर्वाचन मुस्लिम मतदाता ही कर सकते हैं। लार्ड मिण्टो को साम्प्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में माना जाता है।
  • केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानपरिषदों के आकार में वृद्धि की गई।
  • भारत परिषद् तथा गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद् में प्रथम बार भारतीयों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में विधि सदस्य के रूप में प्रथम भारतीय बने ।
    • सदस्यों को विस्तार से प्रश्न पूछने तथा बजट पर विचार- विमर्श का अधिकार प्रदान किया गया।
    पहली बार संकल्प(resolution) के माध्यम से विधान परिषद् में विचार का प्रावधान किया गया।
  • इसमें विश्वविद्यालयों तथा जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया।
    इस अधिनियम के तहत भारतीय विधान परिषद् के सदस्यों को मोटे तौर पर चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-(i) पदेन सदस्य, (ii) नामांकित सरकारी सदस्य, (iii) नामांकित गैर सरकारी सदस्य, और
    (iv) निर्वाचित सदस्य ।
  • केन्द्रीय विधान परिषद् के सभी 27 निर्वाचित सदस्यों के निर्वाचन का आधार सामान्य निर्वाचक मण्डल या प्रादेशिक प्रतिनिधित्व नहीं था । ये सदस्य वर्गों, समुदायों, हितों तथा प्रान्तीय विधान परिषदों द्वारा निर्वाचित किये जाते थे।
  • सत्ताइस सदस्यों में से 5 सदस्य मुसलमानों द्वारा, 6 जमींदारों द्वारा, 1 मुस्लिम जमींदारों द्वारा, 1 बंगाल के वाणिज्य मंडलों द्वारा, 1 बम्बई के वाणिज्य मण्डलों द्वारा और शेष 13 प्रान्तीय विधान परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा चुने जाते थे।
    इस अधिनियम द्वारा पहली बार सामान्य सार्वजनिक हित के किसी भी प्रश्न पर प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दिया गया। नियमों के अधीन पहला प्रस्ताव 25 फरवरी, 1910 को गोपाल कृष्ण गोखले ने पेश किया था जिसमें सरकार से अनुरोध किया गया था कि वह नेटाल में कगराबद्ध मजदूरों का भेजा जाना बन्द कर दे।
  • केन्द्रीय विधान परिषद् की बैठकें वर्ष में दो बार होती थीं। सर्दियों में कलकत्ता और गर्मियों में शिमला में। 1913 में राजधानी दिल्ली में आ जाने पर कलकत्ता की जगह बैठकें दिल्ली में होने लगीं ।
    1909 के अधिनियम के अधीन परिषद् 1920 तक कार्य करती रहीं ।
  • इस अधिनियम से अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति स्पष्ट होती है। पृथक् निर्वाचक मण्डल के बारे में लार्ड मार्ले ने लार्ड मिन्टो को लिखा था-हम नाग के दाँत बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा। (We are sowing drugon’s teeth and the harvest will be bitter.)
    के.एम. मुंशी के अनुसार, उन्होंने उभरते हुए लोकतंत्र को मार डाला तथा उनके अनुसार यह अधिनियम उदारवादियों के लिए रिश्वत के रूप में पेश किया गया था।
    आर. सी. मजूमदार ने इस अधिनियम को चन्द्रमा की चाँदनी की संज्ञा दी है।
    भारत शासन अधिनियम, 1919 (माण्टेग्यू-चैम्सफोर्ड सुधार)
    (Government of India Act, 1919)
    ‘माण्टेग्यू-चैम्सफोर्ड सुधार’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि दोनों क्रमशः तत्कालीन भारत सचिव तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल थे। 20 अगस्त, 1917 को मोण्टेग्यू द्वारा घोषणा की गई जिसका उद्देश्य प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। इस अधिनियम में सर्वप्रथम ‘उत्तरदायी शासन’ शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया गया था। इस अधिनियम में उद्देशिका, 47 धाराएँ तथा दो अनुसूचियाँ थीं।
    विशेषताएँ
    प्रान्तों में द्वैध शासन (Dyarchy) :- भारत शासन अधिनियम, 1919 से द्वैध शासन (Dyarchy) के प्रावधान पर ब्रिटिश विचारक लियोनेल कार्टिस (Lionel George Curtis) के ‘डायर्की’ सम्बन्धी विचारों का प्रभाव था। कार्टिस ब्रिटिश साम्राज्यीय संघवाद (British Empire Federalism) की वकालत करता था।
    • प्रान्तों के लिए प्रस्तावित द्वैध-शासन प्रणाली 1 अप्रैल, 1921 को आरम्भ की गई जो 1 अप्रैल, 1937 तक लागू रही।
    प्रान्तों में द्वैध शासन (Dyarchy) तथा आंशिक उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई। इसके अन्तर्गत प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया-
    (i) आरक्षित विषय ( Reserved Subjects)-आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपनी परिषद् की सहायता से करता था तथा परिषद् विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती थी। जैसे-कानून एवं व्यवस्था, भू-राजस्व, वित्त, प्रशासन, उद्योग, कृषि, खनिज संसाधन आदि।
    (ii) हस्तांतरित विषय (Transferred Subjects). हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर मंत्रियों की सहायता से करता था जो विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
    भारत शासन अधिनियम, 1919 की धारा 10 के तहत प्रान्तीय “विधायिकाओं को कानून बनाने का अधिकार दिया गया किन्तु इसी धारा (10) तथा धारा 11 और 12 में उसकी सीमाएँ भी निश्चित कर दी गयीं। गवर्नर और गवर्नर-जनरल को कुछ स्वविवेकीय शक्तियाँ जिसे आरक्षित विषय (reserved subject) कहा जाता है, प्रदान की गयीं।
    भारत शासन अधिनियम, 1919 की धारा 17 में यह प्रावधान था कि भारतीय विधानसभा गवर्नर-जनरल और दो सदनों- ‘राज्य परिषद्’ (Council of State) तथा विधान सभा (Leg- islative Assembly) से मिलकर बनेगी।
    1919 के अधिनियम की धारा 18 में उल्लेख किया गया कि (i) राज्य परिषद् में अधिक से अधिक 60 सदस्य हो सकते थे। वे सांविधिक नियमों के अनुसार निर्वाचित या मनोनीत होते थे। उनमें अधिक से अधिक 20 सदस्य सरकारी हो सकते थे। (ii) गवर्नर-जनरल सदस्यों में से ही किसी एक को उसका अध्यक्ष (President) नियुक्त करता था, तथा (iii) गवर्नर- जनरल को राज्य परिषद को सम्बोधित करने का अधिकार था, इसके लिए वह सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता था।
    अधिनियम की धारा 19 के अनुसार (i) विधानसभा की सदस्य संख्या अधिकतम 140 तय की थी (बाद में बढ़ाई गयी)। इनमें से 100 निर्वाचित सदस्य, 26 मनोनीत सरकारी सदस्य और शेष गैर सरकारी मनोनीत सदस्य। (ii) सदस्यों की विभिन्न श्रेणियों का अनुपात भी बदला जा सकता था। लेकिन, इसमें यह शर्त थी कि कुल संख्या के कम से कम 5/7 सदस्य निर्वाचित होंगे और शेष के कम से कम एक-तिहाई सदस्य गैर-सरकारी होंगे। (iii) गवर्नर-जनरल को सदन को संबोधित करने का अधिकार था।
    अधिनियम की धारा 20 के अनुसार गवर्नर-जनरल विधानसभा द्वारा अपने में से ही चुने गये (Choose) सदस्य को विधानसभा का अध्यक्ष (President) नियुक्त करता था।
    अधिनियम की धारा 21 के अनुसार राज्य परिषद् की अवधि पाँच वर्ष और विधानसभा की तीन वर्ष थी। • ज्ञात रहे 1919 के अधिनियम के तहत पहली बार 1920 में निर्वाचन हुये और पहली केन्द्रीय विधानसभा का गठन 1 फरवरी, 1921 को हुआ। 1919 के अधिनियम के तहत 1920, 1923, 1926, 1930, 1934 और 1945 में निर्वाचन हुये। कुल छः बार केन्द्रीय विधानसभाओं का गठन हुआ
    1919 के अधिनियम के तहत गठित विधानसभा 1921 अस्तित्व में आई। उसके 145 सदस्य थे। इनमें 104 निर्वाचित सदस्य थे। (52 सामान्य निर्वाचकों द्वारा, 30 मुस्लिम मतदाताओं द्वारा, 9 यूरोपीय मतदाताओं द्वारा, 7 जमींदारों, 4 व्यापारियों द्वारा और 2 सिक्खों द्वारा) । 41 सदस्य नामांकित (26 सरकारी और 15 गैर-सरकारी) सदस्य थे।
  • इसी तरह, केन्द्रीय विधान परिषद् के दूसरे सदन राज्य परिषद के कुल 60 सदस्यों में से 27 नामांकित और 33 निर्वाचित (16 गैर मुस्लिम, 11 मुस्लिम, 1 सिक्ख, 2 गैर साम्प्रदायिक, 3 यूरोपीय शामिल थे। इसका गठन 1921, 1926, 1930, 1936 में हुआ।
  • नवम्बर, 1920 में केन्द्रीय विधान परिषद् के दोनों सदनों के निर्वाचन के पश्चात् 9 फरवरी, 1921 को ड्यूक ऑफ कनॉट ने नई विधायिका का उद्घाटन किया। गवर्नर जनरल ने हाउस ऑफ कामन्स के एक सदस्य सर फ्रेडरिक व्हाइट को 4 वर्ष के लिए सभा का अध्यक्ष नियुक्त किया। उसी दिन सच्चिदानन्द सिन्हा को सभा का उपाध्यक्ष निर्वाचित किया
    ज्ञात रहे केन्द्रीय विधानसभा के पहले भारतीय अध्यक्ष विट्ठल भाई पटेल (1925) थे और अन्तिम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर थे ।
  • अलेक्जेण्डर मुडीमैन को राज्य परिषद् का पहला अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। • राज्य परिषद् 14 अगस्त, 1947 को केन्द्रीय विधानसभा की भाँति भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 के परिणामस्वरूप भंग हो गयी थी।
  • सम्पत्ति तथा शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार प्रदान किया गया तथा जिनकी आय 10 हजार रुपये वार्षिक थी, वही मत दे सकता था।
  • साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार करते हुए सिक्खों, भारतीय ईसाइयों, आंग्ल-भारतीयों तथा यूरोपियों के लिए भी पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था की गई। यद्यपि मोण्टेग्यू चेम्सफोर्ड ने साम्प्रदायिक निर्वाचक मण्डलों को एक खेदजनक आवश्यकता माना था। • इस अधिनियम द्वारा लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त की स्थापना की गई। सिविल सेवकों की भर्ती के लिए एक केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का प्रावधान किया गया जिसका गठन 1926 में किया गया। • पहली बार केन्द्रीय बजट को राज्यों के बजट से अलग कर दिया गया तथा राज्य विधानसभाओं को अपना बजट स्वयं बनाने के लिए अधिकृत कर दिया गया। अधिनियम द्वारा महिलाओं को मताधिकार प्रदान नहीं किया गया था।
  • 10 वर्ष पश्चात् एक वैधानिक आयोग (Royal Commis- sion) के गठन का प्रावधान किया गया जो 1919 के अधिनियम की समीक्षा करेगा। साइमन कमीशन इसी का परिणाम था। • केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के बीच प्रशासन के समस्त विषयों का दो भागों में विभाजन किया गया जो भारत में संघात्मक व्यवस्था के निर्माण की दिशा में प्रथम प्रयास था
     भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीय शासन अधिनियम, 1919 को ‘निराशाजनक तथा असंतोषप्रद’ की संज्ञा दी।
     लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1919 के सुधारों को ‘बिना सूरज का सवेरा’ बताया है।
     सुभाषचन्द्र बोस के अनुसार इस अधिनियम ने जनता के लिए नवीन बंधन गढ़ दिये

भारत शासन अधिनियम 1935
(Government of India Act, 1935)

  • यह अधिनियम भारत में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस अधिनियम में 14 भाग, 321 धाराएँ तथा 10 अनुसूचियाँ थीं।
    विशेषताएँ
  • द्वैध शासन प्रान्तों में सबसे पहले 1919 के अधिनियम से लाया गया किन्तु 1935 के अधिनियम से इसे प्रान्तों में समाप्त कर दिया गया और केन्द्र में लागू कर दिया गया किन्तु यह प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।
    केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत की गयी। 1935 के अधिनियम की धारा 11 और 12 गवर्नर जनरल को कुछ मामलों में स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करती है। इन्हें आरक्षित ( Reserved) विषय कहा जाता है जबकि शेष हस्तान्तरित (Transferred) विषय कहलाते हैं।
    धारा 11 के तहत गर्वर जनरल को प्रतिरक्षा ( defense), ईसाई धर्म सम्बन्धी (ecclesiastical affaris), वैदेशिक सम्बन्ध (external affairs) और जनजातीय क्षेत्रों (tribal areas) के सम्बन्ध में स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार था।
  • धारा 12 के तहत भारत या उसके किसी भाग में संकट निवारण, संघ शासन के आर्थिक स्थायित्व व साख की रक्षा, अल्पसंख्यकों के अधिकार, देशी राज्यों के अधिकारों की रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर स्वविवेक से निर्णय लेने का विशेष उत्तरदायित्व था ।
    इस अधिनियम की धारा 5 भारत संघ की स्थापना का प्रावधान करती है। ज्ञात रहे अधिनियम में भारत संघ (The Federa- tion of India) शब्द प्रयोग में लिए गये हैं न कि ‘अखिल भारतीय महासंघ । ‘
    भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा भारत में संघीय व्यवस्था का प्रावधान किया गया जिसमें संघ, प्रान्त, देशी राज्यों तथा चीफ कमिश्नर प्रान्तों को सम्मिलित होना था । किन्तु यह योजना लागू नहीं हुई ।
  • अधिनियम का भाग 5 (धारा 99 से 121) संघ-राज्यों के विधायी सम्बन्धों, भाग 6 (धारा 122 से 135) प्रशासनिक सम्बन्धों, भाग 7 (धारा 136-180) वित्तीय सम्बन्धों के प्रावधान करता है।
  • 1935 के अधिनियम की सातवीं अनुसूची संघ और इकाइयों के मध्य विषयों के बँटवारे से सम्बन्धित है। इसमें पहली ‘संघीय विधायी सूची’ में 59 विषय, दूसरी ‘प्रान्तीय विधायी सूची’ में 54 विषय और तीसरी ‘समवर्ती विधायी सूची’ जिसमें 36 विषय थे ।
  • धारा 104 के अनुसार अवशिष्ट शक्तियाँ गवर्नर जनरल में निहित थीं।
    संघीय न्यायालय का प्रावधान भारत शासन अधिनियम, 1935 की धारा 200 के अन्तर्गत किया गया था और यह 1 अक्टूबर, 1937 को अस्तित्व में आया तथा 6 दिसम्बर, 1937 से कार्य प्रारम्भ करते हुए 27 जनवरी, 1950 तक 12 वर्ष अस्तित्व में रहा। 28 जनवरी, 1950 से भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।
    संघीय न्यायालय भारत के न्यायिक सोपान में दूसरे नम्बर का उच्चतम न्यायालय था क्योंकि इसके ऊपर प्रिवी कौंसिल की अपीली अधिकारिता थी। किन्तु सितम्बर, 1949 में संविधान सभा ने प्रिवी कौंसिल की भारत में अधिकारिता को पूरी तरह से समाप्त कर दिया।
    संघीय न्यायालय के पहले मुख्य न्यायाधीश सर मौरिस ग्वेयर (Sir Maurice Gwyer) थे जबकि स्वतंत्र भारत में फेडरल कोर्ट के पहले न्यायाधीश एच.जे. कानिया थे। फेडरल कोर्ट का स्थान (seat) दिल्ली में संसद भवन के चेम्बर ऑफ प्रिन्सेस में था ।
    भारत शासन अधिनियम, 1935 की धारा 46 (2) के अन्तर्गत बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया जबकि इससे पूर्व वह भारत का एक प्रान्त था। इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत 1937 में भारत से अलग कर दिया गया था। भारत शासन अधिनियम 1935 के प्रावधानों के आधार पर 1937 में जिन 11 प्रान्तों में प्रान्तीय विधानमण्डलों के लिए निर्वाचन हुए उनमें से 5 प्रान्तों में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुए हुआ। ये 5 प्रान्त थे – बिहार, मध्य प्रान्त तथा बरार, मद्रास, उड़ीसा और संयुक्त प्रान्त (U.P.) । जबकि असम, बम्बई और उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में था। बंगाल, पंजाब और सिंध में कांग्रेस की स्थिति बुरी थी ।
  • 6 प्रान्तों में विधायिका द्वि-सदनीय थी। उनके सारे सदस्यों की संख्या 299 थी, इनमें से कांग्रेस के 64 सदस्य अर्थात् मात्र 28 प्रतिशत ही सफल हुए थे।
    7 जुलाई, 1946 को अन्तरिम मंत्रिमंडलों से कांग्रेस ने सात प्रान्तों- बम्बई, बिहार, मध्य प्रान्त और बरार, मद्रास, उड़ीसा, संयुक्त प्रान्त और उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त में शासन कार्य सम्भाला और अपने मंत्रिमण्डल गठित किये। सितम्बर, 1938 में असम में भी ऐसे गुट ने काम सम्भाल लिया जिसका नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में था। इस प्रकार कांग्रेस के कुल 8 प्रान्तों में मंत्रिमण्डल थे ।
    यद्यपि यह निर्वाचन (1937) महात्मा गाँधी के 17 सितम्बर, 1934 को कांग्रेस से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् हुए। इस निर्वाचन के समय गाँधी जी अपने विलेज इंडस्ट्रीज एसोसियेशन के काम में व्यस्त थे। किन्तु नेहरू का मानना था कि यह बापू का जादू है जिसकी वजह से हमें वोट मिले हैं। ज्ञात रहे भारत शासन अधिनियम, 1919 में उद्देशिका (प्रस्तावना) का उल्लेख था किन्तु भारत शासन अधिनियम, 1935 में उद्देशिका का उल्लेख नहीं था ।
  • इस अधिनियम द्वारा 1858 में स्थापित भारत परिषद् समाप्त कर दी गई।
  • इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल को वित्तीय सलाहकार, महाधिवक्ता, लोक सेवा आयोग के सदस्यों, रेलवे बोर्ड से अध्यक्ष एवं सदस्यों, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर आदि की नियुक्ति और पदच्युति का अधिकार दिया गया। ज्ञात रहे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अधिनियम, 1934 से हुई और यह 1 अप्रैल, 1935 से अस्तित्व में आया ।
  • अधिनियम की धारा 288 के अन्तर्गत अदन (Aden) को ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया और इंग्लैण्ड के उपनिवेश कार्यालय के अधीन कर दिया। अधिनियम की धारा 289 के तहत् सिन्ध और उड़ीसा नये प्रान्त बनाये गये।
    इस अधिनियम द्वारा मताधिकार का विस्तार किया गया।
    . जवाहर लाल नेहरू ने 1935 के अधिनियम को दासता का नया अधिकार पत्र तथा अनेक ब्रेकों वाली परन्तु इंजन रहित मशीन की संज्ञा दी है।
    1935 के अधिनियम के उपबंधों के तहत 11 प्रान्तीय विधान मण्डलों के निर्वाचन 1936-37 के बाद जनवरी, 1946 में हुए। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों ने ही जुलाई-अगस्त, 1946 में संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन किया था।
    • भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 (The Indian Indepen- dence Act, 1947)
  • 3 जून, 1947 की माउण्ट बेटन योजना के आधार पर भारत के विभाजन की योजना प्रस्तुत की गई। इस योजना के आधार पर 18 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 पारित किया। विशेषताएँ
  • इसने भारत में ब्रिटिश राज समाप्त कर 15 अगस्त, 1947 को इसे स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया।
  • इसमें भारत का विभाजन कर दो स्वतन्त्र अधिराज्यों (Dominion State) भारत व पाकिस्तान की स्थापना की गयी।
  • वायसराय के पद को समाप्त कर दिया गया तथा उसके स्थान पर दोनों राज्यों में गवर्नर-जनरल का प्रावधान किया गया, जिसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाएगी।
  • दोनों डोमिनियन राज्यों की संविधान सभाओं को अपने-अपने देश का संविधान बनाने के लिए अधिकृत किया गया।
    भारत सचिव के पद की समाप्ति कर दी गई तथा अंतिम भारत सचिव लॉर्ड लिस्टवेल थे।
    देशी रियासतों को अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने अथवा अपना पृथक् अस्तित्व बनाए रखने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।
  • इस अधिनियम द्वारा यह व्यवस्था की गई कि जब तक दोनों अधिराज्यों का संविधान बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक दोनों अधिराज्यों के शासन का संचालन 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार संचालित होगा।
  • 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को भारत में ब्रिटिश शासन का अन्त हो गया तथा भारत और पाकिस्तान नाम के दो अधिराज्यों की स्थापना हुई ।
  • ज्ञात रहे पाकिस्तान यद्यपि अपना स्वतंत्रता दिवस प्रतिवर्ष 14 अगस्त को मनाता है किन्तु कानूनन वह भी 15 अगस्त, 1947 को ही अस्तित्व में आया। यहाँ तक कि उसने अपना स्वतंत्रता दिवस भी 15 अगस्त, 1947 को ही मनाया किन्तु 1948 से वह 14 अगस्त को मनाने लगा।
  • लार्ड माउण्टबेटन भारत अधिराज्य के प्रथम गवर्नर जनरल बने तथा जवाहरलाल नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलायी गयी।
    भारत के अन्तिम (प्रथम भारतीय व्यक्ति) गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी बने तथा 1946 में बनी संविधान सभा को स्वतंत्र भारतीय डोमिनियन की संसद के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

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