पुस्तकालय का उद्भव, विकास और आधुनिक समाज में पुस्तकालय की भूमिका (Development of Libraries and the Role of Library in Modern Society)
पुस्तकालय : महत्व और उपयोगिता : मानव सभ्यता की कहानी से पता चलता है कि पुस्तकालय सभ्य समाज के आवश्यक अंग के रूप में सदैव विद्यमान रहे हैं। इनका उद्भव समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है और इनका स्वरूप, उद्देश्य, कार्य और सेवाएँ, समाज की आवश्यकताओं दारा निर्णीत होती हैं। पुस्तकालयों ने समाज के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास में महती भूमिका अदा की है। संस्कृति के संरक्षण और प्रगति, औपचारिक और अनौपचारिक स्वशिक्षा, मनोरंजन आदि में पुस्तकालयों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। समय की गति के साथ ज्ञान के संचरण के महत्व में सतत वृद्धि हो रही है। पुस्तकालय ज्ञान के परिसंचरण से सम्बन्धित है। पुस्तकालय को इस प्रसंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करना है क्योंकि ज्ञान अधिक जटिल होता चला जा रहा है और ज्ञान संचरण के साधन भी अधिक जटिलता प्राप्त कर रहे हैं।
पुस्तकालय एक सामाजिक जन संस्था है जो निरन्तर समाज कल्याण में रहते हुए ज्ञानी और अज्ञानी को समान रूप से ज्ञान वितरित करती है। यह ज्ञान के प्रसारण, विद्वता की प्रगति और शिक्षा तथा अनुसंधान की वृद्धि की संस्था है। भारतवर्ष में विद्या दान की बड़ी महिमा है। हमारे पूर्वजों ने इसको सब दानों से श्रेष्ठ दान माना है। पुस्तकालय वास्तव में विद्या के भण्डार हैं। जन पुस्तकालयों को ‘लोक विश्वविद्यालयों की संज्ञा दी जाती है जिसके द्वार प्रत्येक व्यक्ति के लिये सदैव खुले रहते हैं और उसकी ज्ञान पिपासा शांत करते हैं। यह जन साधारण को आजीवन स्वशिक्षा प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होते है। कोई भी व्यक्ति किसी विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु वह पुस्तकालय का सदस्य बनकर जीवन पर्यन्त अपना ज्ञान संवर्द्धन अवश्य कर सकता है। किसी विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय में एक सीमित संख्या में विद्यार्थी होते हैं जो कुछ सीमित समय तक वहाँ शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु एक पुस्तकालय में न तो सीमित उपयोगकर्ता होते हैं और न अध्ययन की कोई सीमित अवधि होती है। एक जन पुस्तकालय में बच्चे, स्त्रियाँ और यहाँ तक की वृद्ध व्यक्ति भी स्वशिक्षा के लिये प्रवेश कर सकते हैं। पुस्तकालय में, एक शैक्षणिक संस्था के समान शिक्षकों की भी आवश्यकता नहीं होती है।
पुस्तकालय द्वारा जन साधारण को अपने अवकाश के समय का सदुपयोग और स्वस्थ
मनोरंजन प्राप्त होता है। इनके द्वारा सभी को निष्पक्ष रूप से सभी विषयों पर आधुनिकतम सूचना और पाठ्य सामग्री प्राप्त होती है। जनतंत्र में पुस्तकालय जन साधारण को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक और सचेत रखते हूँ। पुस्तकालयों में संग्रहित पाठ्यसामग्री का उपयोग करके कोई भी व्यक्ति अपने कार्य में दक्षता प्राप्त करके व्यक्तिगत उन्नति के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रगति में भागीदारी कर सकता है। पुस्तकालयों द्वारा राष्ट्रीय एकता, अन्तर्राष्ट्रीय शांति, सहयोग तथा सद्भावना में वृद्धि होती है। पुस्तकालय मानवता की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों को आगामी पीढ़ियों के उपयोगार्थ सदैव सर्वदा तक सुरक्षित रखते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पुस्तकालयों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुस्तकालय एक पवित्र एवं कार्यशील संस्था हैं। महान भारतीय विधि निर्माता मनु ने कहा है:
‘अज्ञानियों के द्वार तक निःशुल्क ज्ञान को ले जाना, उनको सत्य पथ पर। अग्रसित करना इस प्रकार के दान के समान कुछ भी नहीं है। यहाँ तक की सम्पूर्ण विश्व भी दे देना इसकी समता नहीं कर सकता।’
किसी देश, राष्ट्र और समाज की संस्कृति, सभ्यता, बौद्धिक उपलब्धियों और समग्र प्रगति की जानकारी उसके पुस्तकालयों के माध्यम से प्राप्त होती है। पुस्तकालय के महत्व को न्यून नहीं किया जा सकता। पुस्तकालयों को देश की आर्थिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और शैक्षणिक संरचना में अपना योगदान प्रस्तुत करने का अवसर देना चाहिये।
पुस्तकालय का उद्भव और विकास : पुस्तकालय, मानव सभ्यता के विकास के आरम्भ से ही किसी न किसी रूप में पाये जाते हैं। पहले इनको ग्रन्थों के भण्डारगृह के रूप में मान्यता प्राप्त थी और इनका मुख्य कार्य ग्रन्थों को परिरक्षण करना था। ग्रन्थालयी को ग्रन्थों का संरक्षक माना जाता था और वह ग्रन्थों के उपयोग करने को प्रोत्साहित नहीं करता आ। वह उपयोगकर्ताओं से अलग- अलग रहता था।
पुस्तकालय अभिलेखागार की भांति हुआ करते थे। मध्य युग में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी द्वारा ‘ग्रंथालय’ शब्द की व्याख्या उस स्थान के रूप में की गई “जहाँ पुस्तकें वाचन, अध्ययन और संदर्भ के लिये रखी जाती हैं।” उन्नीसवीं शताब्दी तक भी पुस्तकालय को ‘एक भवन, अथवा कक्षों के समूह के रूप में जाना जाता था। जहाँ जन साधारण अथवा उसके एक अंश अथवा समाज के सदस्यों के उपयोगार्थ, पुस्तकों का संग्रह किया जाता था। यह एक जन संस्था अथवा संस्थापन था जिसका कार्य पुस्तकों का संग्रह और संरक्षण करना था।’ इन परिभाषाओं में पुस्तकों के संग्रहण और संरक्षण पर बल दिया गया है और मानवीय पक्ष की भूमिका की जो उसके उपयोग को प्रोत्साहित करे, कि अवहेलना की गई है।
अब पुस्तकालय और पुस्तकालय सेवा की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। अब पुस्तकालयों में रखी पाठ्य सामग्री के उपयोग पर बल दिया जाने लगा हैं। आधुनिक पुस्तकालय को एक जनसेवा की संस्था माना जाता है। आधुनिक ग्रन्थालयी का कर्तव्य पुस्तकालय के स्रोतों और सेवाओं का अधिकतम प्रभावशाली और सक्षम उपयोग करवाना है। पुस्तकालय और सूचना विज्ञान के क्षेत्र में पिछली कुछ दशाब्दियों में अत्यधिक विकास हुआ है। भारत में पुस्तकालय आन्दोलन के जनक रंगनाथन के अनुसार पुस्तकालय “एक जन संस्था अथवा संस्थापन है जिसको पुस्तकों की सुरक्षा और संग्रहण का कार्य सौंपा गया है, उसका कर्तव्य उनको, उन व्यक्तियों को सुलभ करना है जो उनका उपयोग करना चाहते हैं और उसका कार्य अपने पड़ोस में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पुस्तकालय आने का अभ्यस्त और पुस्तकों के अध्येता के रूप में परिवर्तित करना है।” अतः पुस्तकालय एक जनसंस्था है जिससे प्रत्येक संभावित पाठक को वास्तविक पाठक में परिवर्तित करने की अपेक्षा की जाती है। वस्तुतः यह एक आधुनिक पुस्तकालय की अवधारणा है।
आधुनिक पुस्तकालय की अवधारणा एक आधुनिक पुस्तकालय को सेवा-संस्थान माना जाता है। इसका उद्देश्य पुस्तकालय स्रोतों और सेवाओं का उपयोगकर्ताओं द्वारा सर्वाधिक प्रभावशाली उपयोग करवाना है। यहाँ पाठ्य सामग्री ‘संरक्षण’ का पक्ष ‘गौण’ गया है और ‘उपयोग का पक्ष प्रबल हो गया है।
आज हम सूचना-युग में रह रहे हैं। सूचना आज के जटिल आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। ज्ञान की प्रगति में इसका प्रमाणिक योगदान है। शोध द्वारा समस्याओं का निराकरण खोजा जाता है। समस्याओं के निराकरण के लिये सूचना की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय विकास का कोई भी कार्यक्रम उपयुक्त सूचना के अभाव में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता है। ‘ज्ञान’ को ‘शक्ति’ माना जाता है। अब ‘सूचना’ को ‘शक्ति’ मानना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा। पुस्तकालय केवल भूत, वर्तमान, भावी ज्ञान के भण्डारण ही नहीं हैं अपितु सूचना-निर्दिष्ट हो गये हैं। अब ये अधिक से अधिक सूचना सेवा केन्द्र हो रहे हैं जिससे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। एक शोधकर्ता को स्वयं को अद्यतन रखने के लिये और अपने विशिष्टीकरण के क्षेत्र में भली भांति सूचित होने के लिये ‘सूचना’ की आवश्यकता पड़ती है। एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के प्रबंधक को उचित निर्णय लेने के लिये पर्याप्त सूचना की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार एक नियोजक को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय योजनाओं का निर्माण करने के लिये सूचना की आवश्यकता है।
परम्परागत पुस्तकालयों में पाठ्य-सामग्री के रूप में पाण्डुलिपियाँ, पुस्तकें और आवधिक प्रकाशन (पत्र-पत्रिकाओं) का संग्रह किया जाता था। आधुनिक पुस्तकालय इस प्रकार की सामग्री के अतिरिक्त स्लाईड्स, चित्र, ऑडियो-कैसेट्स, वीडियो कैसेट्स, मानचित्र, ग्रामोफोन रिकार्डस, टेप रिकार्डस सीडी रोम और अणु-स्वरूप सामग्री का भी अर्जन और संग्रहण करते हैं। अतः ‘पुस्तकों’ का स्थान ‘ग्रन्थ’ अथवा ‘प्रलेख’ एवं सूचना ने ले लिया है।
पुस्तकालयों के उद्भव और विद्यमान होने के लिये पूर्व अपेक्षित दशायें : पुस्तकालयों के विद्यमान होने के लिये कुछ पूर्व अपेक्षित दशायें हैं जो निम्नानुसार हैं: (1) साहित्य का अभिलेखित स्वरूप में विद्यमान होना और अभिलेखित होना;
(2) विद्यमान अभिलेखित साहित्य उस गुणवत्ता का होना चाहिये जिसको संरक्षित किया जा सके
(3) जन साधारण का साक्षर होना;
(4) अभिलेखित साहित्य को व्यक्तिगत अभिधारण से परे जाने के विचार की स्वीकृतिः और
(5) पुस्तकालयों की स्थापना और अनुरक्षण करके अपने स्रोतों को समुदाय द्वारा उपयोग करने की सहमति ।
इसमें से अन्तिम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि किसी भी देश अथवा समाज में पुस्तकालयों के विकास के लिये निम्नांकित दो नितान्त आवश्यक पूर्व अपेक्षित अनिवार्यतायें हैं:
- सब प्रकार की उत्तम श्रेणी की सस्ती पुस्तकों का द्रुत गति से प्रकाशन; और
- ज्ञान में प्रजातन्त्र के प्रति सामाजिक जागृति का विकास।
पुस्तकालयों के विकास के लिये अनुकूल दशायें वस्तुतः पुस्तकालयों के उद्भव और विकास की कहानी, समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षणिक आवश्यकताओं को प्रतिउत्तरित करती है। पुस्तकालयों ने समाज की आवश्यकताओं को प्रतिउत्तरित किया है। अनुभव दर्शाता है कि अनेक दशायें जो हमारे समाज के विकास को प्रभावित करती हैं, पुस्तकालयों के विकास को भी प्रभावित करती हैं। कुछ ऐसी दशायें है जो पुस्तकालयों के अनुकूल हैं। इन दशाओं के अन्तर्गत पुस्तकालय पल्लवित होते हैं। जे. के. गेट्स के अनुसार ये दशायें निम्नानुसार है: - RANGANATHAN (SR) Reference Services and Bibliography. VI. P25
- ऐसे राजनैतिक और सामाजिक परिपक्वतापूर्ण समाजों में जो ज्ञान के निकाय को संरक्षित, परिसंचरित और विस्तृतीकरण की आवश्यकता को मान्यता प्रदान करते हैं, पुस्तकालय पल्लवित होते हैं।
- सापेक्ष, शान्ति और सद्भावना की अवधि जिसमें सांस्कृतिक और बौद्धिक क्रिया-कलापों के नियोजन का समय प्राप्त होता है।
- जब व्यक्तियों के पास अवकाश का समय और ‘ललित कलाओं को उगाने और अपने ज्ञान के सामान्य भण्डार को सुधारने दोनों के साधन हों।
- बौद्धिक सृजनात्मक और पाण्डियतापूर्ण क्रिया-कलापों की समयावधियों में जब विशाल और विभिन्नतापूर्ण पाठ्य सामग्री के संग्रह की आवश्यकता, अध्ययन और अनुसंधान के लिये पड़ती है।
- जब आत्मोन्नति और भलीभांति सूचित नागरिकत्व पर वृहद सामाजिक बल दिया जाता हो।
- विद्वता की पुनर्जागृति के दौरान जो ग्राफिक सामग्री के एकत्रीकरण और उन तक पहुँच के चारों ओर केन्द्रित और आश्रित होती है।
- जब संस्थागत स्थायित्व और अवधि की सुरक्षा, स्थायित्व और सत्ता प्रदान करती है। 8. जनसंख्या एकत्रीकरण के क्षेत्र और विशेष रूप से नगरीय पर्यावरण में जो नेतृत्व,
8 पुस्तकालयों को आर्थिक साधन और उनके उपयोग के लिये सांस्कृतिक और बौद्धिक रुचि के लिये प्रोत्साहन प्रदान कर सके। - जब आर्थिक सम्पन्नता, पर्याप्त व्यक्तिगत और समष्टिगत सम्पदा प्रदान करती है और जनहित के लिये दान की प्रवृति प्रोत्साहित होती है।
- उन अवधियों में जब, जैसा कुछ पिछली दशाब्दियों में हुआ है, आर्थिक विकास, राष्ट्रीय शक्ति और स्तर को उपयोगितावादी मूल्य के सूचना और ज्ञान के विस्तृत प्रसारण पर आश्रित माना जाता है।”?
उपरोक्त सूची में वर्णित दशायें भारत में किसी सीमा तक विद्यमान नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि पुस्तकालयों के विकास के लिये अनुकूल दशायें उपलब्ध नहीं हैं।
भारत में पुस्तकालयों के विकास के मार्ग में बाधायें
वस्तुतः भारत में पुस्तकालयों के विकास में अनेक बाधायें हैं जिनमें से प्रमुख निम्नानुसार हैं :
- निरक्षरताः निरक्षरता उन्मूलन की दिशा में राजकीय स्तर पर सक्रिय एवं सतत प्रयास किये जा रहे हैं किन्तु जन पुस्तकालयों को अपेक्षित महत्व प्रदान नहीं किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में यहाँ यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि जन पुस्तकालयों के अभाव में आज साक्षर बनाये गये व्यक्ति कल पुनः निरक्षरता के अंधकार रूपी गर्त में डूब जायेंगे। इसलिये साक्षरता कार्यक्रमों में सार्वजनिक पुस्तकालयों की भूमिका को नकारा नहीं जाना चाहिये।
- सीमित आर्थिक साधनः भारत एक निर्धन देश है। धन के अभाव में वांछित पुस्तकालय सेवा स्थापित करना कठिन है। सरकार का ध्यान भी जनसाधारण की तीन प्राथमिक आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान पर केन्द्रित रहता है।
- पुस्तकों, विशेष रूप से वैज्ञानिक तथा तकनीकी साहित्य का अभावः भारतीय भाषाओं में पुस्तकों का नितान्त अभाव है। यह अभाव विशेष रूप से वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य के क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। वैसे अब यह स्थिति बदल रही है।
- जनसंख्या का बिखरावः भारत की 70 प्रतिशत जनता सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-छोटे ग्रामों और पुरबों में निवास करती है। इन छोटे-छोटे ग्रामों और पुरबों में संतोषजनक पुस्तकालय सेवा केवल चल पुस्तकालयों द्वारा प्रदान की जा सकती है जो काफी व्ययसाध्य कार्य है।
- लिखने पढ़ने की परम्परागत रूढ़िवादी विधिः पढ़ने लिखने के प्रति जनतंत्रात्मक भावना का विकास नहीं हो सका है। ‘ग्रन्थ और ज्ञान सर्वार्थ हैं इस भावना का विकास नहीं हो सका है। जनसाधारण इसके प्रति उदासीन है।
- स्त्रियों की सामाजिक स्थितिः भारत में महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चार-दीवारी माना जाता है। अतः यह माना जाता है कि उनको पढ़ने लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसी है। यद्यपि अब इस विचारधारा में भी परिवर्तन हो रहा है।
स्थिति में लगभग आधी जनता के लिये ग्रन्थों और पुस्तकालयों की कोई आवश्यकता ही नहीं 2. GATES (Jean Key): Introduction to Librarianship. p.92-93 - अभिप्रेरणा का अभावः किसी भी जन-कल्याण के कार्य के प्रति लोगों में कोई विशेष रूचि नहीं है। अतः पुस्तकालय विकास को भी कोई बल प्राप्त नहीं हो सका है।
- पुस्तकालय चेतना का अभावः हमारे देश में नई-नई पुस्तकों को पढ़ने के चाव का नितान्त अभाव है। अतः जनता पुस्तकालय अभाव को अनुभव नहीं करती और उनकी स्थापना के लिये कोई सक्रिय प्रयास भी नहीं करती है।
- सरकारी पहल तथा सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम का अभावः हमारी राज्य सरकारें इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की पहल के प्रति उत्सुक नहीं हैं। स्वतंत्रता के 50 वर्षों के पश्चात भी केवल कुछ ही राज्यों में सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम पारित हो सके है और वह भी संतोषजनक नहीं है।
अब परिस्थितियाँ बदल रही हैं। यद्यपि भारत में पुस्तकालयों का विकास मंद गति से हुआ है। भारत में राजनैतिक दृष्टि से पुस्तकालयों के विकास को निम्न प्राथमिकता दी गई है। इसका कारण यह है कि भारत एक निर्धन देश है और बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति आदि समस्याओं से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में कोई भी सरकार इन समस्याओं को हल करने को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देती है। भारत में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य सरकार का दायित्व है। अतः पुस्तकालय भी इसी परिधि में आते हैं। भारत के कई राज्यों में जन पुस्तकालय अधिनियम पारित हो चुके है जहाँ पुस्तकालय विकास तीव्र गति से हो रहा है। जन पुस्तकालय विकास के लिये पुस्तकालय अधिनियम आवश्यक है। भारत में जन पुस्तकालयों के लिये धन प्रदान करने वाले व्यक्तियों का भी अभाव ही रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका में इस दृष्टि से एण्ड्रयू कॉरनेगी का नाम सर्वप्रथम आता है। भारत को भी एक कॉरनेगी जैसे पुस्तकालय प्रेमी लोकोपकारी व्यक्ति की पुस्तकालय विकास के लिये तीव्र आवश्यकता है। सम्भवतः भारतीय पुस्तकालय व्यवसाय ने समाज के नेताओं, उद्योगपतियों और जनहितैषियों का समर्थन प्राप्त करने के लिये पर्याप्त और सक्रिय प्रयास भी नहीं किये हैं। अतः ग्रन्थालयियों और पुस्तकालय प्रेमियों को इसके लिये आगे आना होगा। उनको ‘पुस्तकालय-मित्रों’ का सुदृढ़ समूह निर्मित करना होगा जो पुस्तकालयों की स्थापना के लिये अनुकूल जनमत तैयार कर सकें। यह कार्य पुस्तकालय संघों द्वारा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर करना होगा।
पुस्तकालयों के विकास के कारक :उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि पुस्तकालय विकास के निम्नांकित कारक हैं: - समाज की राजनैतिक और सामाजिक स्थिरता
- उच्च जीवन स्तरः
- साक्षरता की उच्च दर:
- भली भांति संस्थापित पुस्तक व्यवसाय;
- नगरीय जनता का बड़े समूहों में निवासः
- स्थानीय और राष्ट्रीय परम्परायें:
- प्रतिष्ठित नागरिकों का प्रभावः तथा
- राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय सरकारों से प्रोत्साहन।
पुस्तकालयों के विकास में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक दशायें महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। भारत जैसे देश में जनता सभी कार्यों को करने के लिये सरकार की ओर से पहल और समर्थन की अभिलाषी रहती है। - पुस्तकालयों के प्रकार
आधुनिक समाज में पुस्तकालय कई प्रकार के होते हैं। उनके मुख्य प्रकार निम्नानुसार है: - जन पुस्तकालय
- शैक्षणिक पुस्तकालय (विद्यालयीन, महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय)
- विशिष्ट और शोध पुस्तकालय
- राष्ट्रीय और राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय
जन पुस्तकालय (Public Libraries) : जन पुस्तकालय जनोपयोग की संस्था है। वैसे तो इनका अस्तित्व पुस्तकालय के अस्तित्व से ही जुड़ा है। परन्तु जन पुस्तकालय अवधारणा का वास्तविक विकास जनतंत्र के साथ हुआ और ‘ग्रन्थ और सर्वार्थ की संकल्पना के साथ ज्ञानार्जन में भी जनतंत्र का युग आरम्भ हुआ। जन पुस्तकालय की परिभाषा बी. एस. रसल ने इस प्रकार की, “जन पुस्तकालय वास्तव में जन साधारण के लिये, जन साधारण द्वारा, जन संस्थायें हैं। यह समस्त नागरिकों के लिये निःशुल्क संस्थायें हैं।”
एल.आर मकॉल्विन ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक “Chance to read” में जन पुस्तकालयों के पाँच आधारभूत सिद्धांतों को निम्नानुसार अंकित किया है: 1. जन पुस्तकालय सेवा प्रदान करने के प्रावधान का उत्तरदायित्व उपयुक्त जम शासकीय प्राधिकरण का है न कि किन्हीं निजी तथा वर्गीय समूहों काः - इनको इन्हीं प्राधिकरणों द्वारा प्रशासित और वित्त प्रदान किया जाना चाहिये;
- इन पुस्तकालयों की सेवायें उक्त समाज के सभी सदस्यों को निःशुल्क प्राप्त होनी चाहिये:
- जहाँ तक संभव हो सके उक्त पुस्तकालयों को उक्त समाज के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं और रुचियों की पूर्ति करना चाहिये;
- यह पुस्तकालय केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक दृष्टि से भी स्वतन्त्र होने चाहिये अर्थात इनको निष्पक्ष होना चाहिये और इनको सभी को पूर्ण, निर्बाध और बिना किसी भेद भाव के पाठ्य सामग्री के उपयोग का समान अवसर प्रदान करना चाहिये।
एक जन पुस्तकालय समस्त जनता को बिना किसी भेद-भाव के (लिंग, धर्म, रंग एवं जाति) निःशुल्क शिक्षा, सूचना, मनोरंजन और प्रेरणा प्रदान करता है। भारतवर्ष में वैसे तो नाम के अनेक जन पुस्तकालय हैं परन्तु वे वास्तव में जन पुस्तकालय नहीं हैं क्योंकि उनमें उपरोक्त प्रभेदी विशेषताओं का सर्वथा अभाव है। हमारे देश के अधिकांश जन पुस्तकालय अभिदान (चन्दा) पुस्तकालय हैं। वे केवल इसी अर्थ में जन पुस्तकालय हैं कि जन साधारण उनका उपयोग कर सकते हैं परन्तु शुल्क देकर। हमारे देश के जन पुस्तकालय संसार के अन्य प्रगतिशील देशों जैसे संयुक्त राज्य अमरीका तथा ग्रेट ब्रिटेन आदि से अभी लगभग एक शताब्दी पीछे हैं। यदि हमें अपने देश की सर्वतोन्मुखी प्रतिभा को विकसित करना है तो शैक्षणिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक तथा राजनैतिक जागरण के इस युग में जन पुस्तकालयों के गठन तथा संचालन के लिये सक्रिय प्रयास करना अत्यन्त आवश्यक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि सच्चे अर्थो में जन पुस्तकालय तथा पुस्तकालय तन्त्र (Library System) की स्थापना केवल सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम पारित करके ही की जा सकती है। एक जन पुस्तकालय में जन साधारण, छात्र, शिक्षक, शोधकर्ता, व्यापारी, श्रमिक, गृहणियाँ, अवकाश-प्राप्त व्यक्ति और नवसाक्षर आदि सभी आते हैं और उसको उन सबकी अध्ययन आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना चाहिये।
शैक्षणिक पुस्तकालय (Academic Libraries)
विद्यालयीन पुस्तकालयः छात्रों और शिक्षकों की अध्ययन आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। विद्यालय एक श्रेष्ठ शिक्षा का आधार स्तम्भ है। इसी प्रकार विद्यालयीन पुस्तकालय सम्पूर्ण शैक्षणिक पुस्तकालय तंत्र का आधार स्तम्भ है। एक विद्यालयीन पुस्तकालय में परम्परागत पाठ्य-सामग्री पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त टेप रिकार्डर्स, मानचित्र, चार्ट्स, ग्रामोफोन रिकार्डस, फिल्म्स आदि का भी संकलन होना चाहिये। शिक्षण कार्य में प्रयुक्त श्रव्व-दृश्य सामग्री विद्यालयीन पुस्तकालय का अंतरंग भाग होना चाहिये। हमारे देश में विद्यालयीन पुस्तकालयों की दशा संतोषजनक नहीं है और वह सर्वथा उपेक्षित है।
महाविद्यालयीन पुस्तकालयः महाविद्यालयीन पुस्तकालय भी मुख्यतः छात्रों और शिक्षकों की अध्ययन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और महाविद्यालय के शिक्षण कार्यक्रम में सक्रिय भूमिका अदा करतें हैं। भारत में स्वतंत्रता के उपरान्त महाविद्यालयीन पुस्तकालयों का विकास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के उदार अनुदानों से हुआ है। फिर भी अभी काफी कुछ करने को शेष है।
विश्वविद्यालयीन पुस्तकालयः शैक्षणिक पुस्तकालयों के शीर्ष पर विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय होते हैं। यह विश्वविद्यालय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है और इसको विद्वानों ने ‘विश्वविद्यालय के हृदय’ के संज्ञा दी है। महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय में आकार के अतिरिक्त एक मुख्य अंतर उसका शोध कार्य पर बल देना है।
विशिष्ट और शोध पुस्तकालय (Special and Research Library)
एक विशिष्ट पुस्तकालय किसी एक विषय या विषयों के समूह में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है। के.जी.बी. ने इसकी परिभाषा करते हुए लिखा है, “एक ऐसा पुस्तकालय जो किसी समूह विशेष को सेवा प्रदान करता है जैसे किसी प्रतिष्ठान के कर्मचारी, किसी शासकीय विभाग के कर्मचारी अथवा किसी व्यावसायिक या अनुसंधान के कर्मचारी और सदस्य।
- RUSSELL (BS): Libraries in the life of Nation. 1943 4. Mc COLVIN (LR): Chance to Read: Public Libraries of the world. 1966
ऐसा पुस्तकालय आवश्यक रूप से सूचना से सम्बन्धित होता है।
एक सामान्य और विशिष्ट पुस्तकालय में मुख्य मुख्य अन्तर निम्नानुसार हैं: - एक सामान्य पुस्तकालय में मुख्यतः पुस्तकें तथा सामयिक प्रकाशनों (Periodical Publications) का संग्रह किया जाता है जबकि विशिष्ट पुस्तकालय में पाठ्य सामग्री के रूप में मुख्यतः सामयिक प्रकाशन, शोध प्रतिवेदन, मानक (Standards), पेटेन्ट्स (Patents), विनिर्देश (Specifications), सारांश (Abstracts) तथा अन्य इसी प्रकार की सामग्री संग्रहित की जाती है। ऐसे पुस्तकालयों में शैक्षणिक पुस्तकालयों की अपेक्षाकृत ग्रंथों की संख्या कम होती है।
- सामान्य तथा विशिष्ट पुस्तकालयों में प्रदत सेवा की प्रकृति मे अन्तर होता है। सामान्य पुस्तकालयों में ग्रन्थ अर्थात पाठ्य-सामग्री प्रदान की जाती है जबकि विशिष्ट पुस्तकालयों में ‘सूचना’ प्रदान की जाती है।
- उपरोक्त दो आधारभूत भिन्नताओं के कारण सामान्य तथा विशिष्ट पुस्तकालयों में ग्रन्थों तथा सामयिक प्रकाशनों का व्यवस्थापन ग्रन्थाधारों (Racks) पर किया जाता है जबकि विशिष्ट पुस्तकालयों में सूचना के व्यवस्थापन के लिये विशेष प्रकार के ऊर्ध्वाकार केबीनेट (Vertical File cabinets), नस्तियों (Files) तथा सन्दूकों आदि की आवश्यकता पड़ती है। सूचना को वर्गीकृत करने के लिये विशेष प्रकार के सूक्ष्म वर्गीकरण (Depth Classification) की आवश्यकता पड़ती है। सूचीकरण का स्थान अनुक्रमणीकरण (indexing) द्वारा ले लिया जाता है। सन्दर्भ सेवा के स्थान पर पाठकों को अनेक प्रकार की अन्य सेवायें जैसे सामयिक अभिग्यता सेवा (Current Awareness service = CAS), सूचना का चयनात्मक प्रसारण (Selecting dissemination of information = SDI) आदि प्रदान करनी पड़ती है। पाठकों की सहायतार्थ अनुवाद सेवा तथा सारांशीकरण सेवा (Abstracting services) आदि को भी अपनाना पड़ता है।
- विशिष्ट पुस्तकालयों में:
(क) संस्थापित विचारों से कहीं अधिक नवजात विचारों (Nascent thought) पर;
(ख) वृहद (Macro) ग्रन्थों से कहीं अधिक अणु (Micro) ग्रन्थों परः तथा
(ग) सामान्य (Generalist) पाठक से कहीं अधिक विशिष्ट (Specialist) पाठक पर बल दिया जाता है।
एक विशिष्ट पुस्तकालय अपने पितृ निकाय की सेवार्थ अस्तित्व में आता है। इसका उद्देश्य अपने पितृ निकाय के क्रिया कलापों में सहयोगी बनना है और उनको गति प्रदान करना है।
राष्ट्रीय और राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय (National and State Central Library) एक राष्ट्रीय पुस्तकालय किसी राष्ट्र का विशालतम पुस्तकालय होता है और राष्ट्रीय पुस्तकालय तन्त्र के शीर्ष पर स्थित होता है। किसी देश का राष्ट्रीय पुस्तकालय उस देश में उत्पादित समस्त पुस्तकों को भावी पीढ़ियों के लाभार्थ संग्रहित तथा सुरक्षित रखने के लिये प्रतिबद्ध रहता है। जी. चेन्डलर के अनुसार, “जहाँ जन पुस्तकालय समस्त स्थानीय समुदाय की
सेवा करते हैं और शैक्षणिक पुस्तकालय शिक्षकों और विद्यार्थियों के उपयोग के लिये संस्थापित किये जाते हैं, राष्ट्रीय पुस्तकालयों का प्रावधान समूचे राष्ट्र की रुचियों को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है।
भारत एक विशाल देश है जो अनेक राज्यों में बंटा हुआ है। किसी सीमा तक जो स्थिति राष्ट्रीय पुस्तकालय की किसी राष्ट्र में होती है, वही स्थिति किसी राज्य में वहाँ के राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय की होती है।
पुस्तकालयों के कार्य और आधुनिक समाज में उनकी भूमिका
सामान्यतः पुस्तकालयों के कार्य निम्नानुसार हैं:
(i) मानवता की साहित्यिक और बोद्धिक उपलब्धियों को भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ सदैव सर्वदा को सुरक्षित रखना।
(ii) औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा में सक्रिय भूमिका।
(iii) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना।
(iv) अवकाश के समय का सदुपयोग और स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करना।
(v) आजीवन स्वशिक्षा के सशक्त माध्यम के रूप में कार्य करना।
(vi) प्रजातन्त्र की सफलता और राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, सद्भावना तथा एकता में वृद्धि करने के लिये कार्य करना।
(vii) सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रयास करना। - BAKEWELL(KGB): Special Library(in manual of library economy)
- CHANDLER(G): Library of the modern world. 1965
viii) निःशुल्क पुस्तकालय सेवा प्रदान करना बिना किसी भेदभाव के। (
(ix) इसका उपयोग जोर जबरदस्ती से नहीं स्वेच्छा से हैं।
(i) साहित्यिक और बौद्धिक उपलब्धियों का संरक्षणः आधुनिक समय में मुख्यतः राष्ट्रीय पुस्तकालय, राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय और अन्य विशाल पुस्तकालय इस कार्य को सम्पन्न करते हैं। पुस्तकालय, संस्कृति धरोहर के संरक्षण का कार्य करते हैं। समाज को पुस्तकालय के इस कार्य समझना और मान्यता प्रदान करनी चाहिये जिससे किसी भी दृष्टि से पुस्तकालयों का महत्व न्यून न हो सके।
(ii) औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा में सक्रिय भूमिकाः शैक्षणिक पुस्तकालयों का आधारभूत कार्य औपचारिक शिक्षा में सक्रिय भागीदार करना है। विद्यालयीन, महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय पाठ्य-ग्रन्थों और सहायक ग्रन्थों का विशाल संग्रह निर्मित करके औपचारिक शिक्षा को गति प्रदान करते हैं। किसी सीमा तक जन पुस्तकालय भी इस कार्य को सम्पन्न करते हैं। भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई जिसके उद्देश्य निम्नानुसार हैं:
- कम सुविधा प्राप्त वर्ग को भी अधिक सुविधा प्राप्त वर्ग के साथ खड़ा किया जाये। इसके लिये प्रत्येक जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालयों के रूप में नवोदय विद्यालय स्थापित किये जा रहे है।
- संस्थाओं को अधिक एकरूपता प्रदान की जाये जिससे नौकरशाही का क्षेत्र सीमित हो सके और पारम्परिक भारतीय मूल्य को सुदृढ़ता प्राप्त हो सके। इसके लिये राष्ट्रीय आधारभूत पाठ्यचर्या का विकास किया जा रहा है। इसमें समकालीन भारतीय राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक दशाओं से सम्बन्धित पाठों को सम्मिलित किया जायेगा।
- शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन लाया जा सके जिससे प्रत्येक छात्र को विचारशील नागरिक बनाया जा सके। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये ‘बालक-निर्दिष्ट शिक्षण का प्रस्ताव है जिससे उसको सीखने के लिये अभिप्रेरित किया जा सके। परीक्षा प्रणाली में भी सुधार का प्रस्ताव है।
- प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण किया जा सके। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये प्राथमिक शिक्षा शत प्रतिशत हो सके, इसके लिये सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है और इस शताब्दी के अन्त तक 15-35 वर्ष की आयु समूह में शत प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब तक पुस्तकालय व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं बनाया जायेगा तब तक इस प्रकार की नीति पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकेगी।
पुस्तकालय अनौपचारिक शिक्षा में महती सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी साधन सम्पन्न क्यों न हो आजीवन किसी शिक्षण संस्था में शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता है। जबकि शिक्षा एक सतत और आजीवन प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को अनौपचारिक शिक्षा की आवश्यकता है जिसका एकमात्र सशक्त माध्यम पुस्तकालय है।
(iii) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकासः पुस्तकालय में संग्रहित पाठ्य सामग्री का अध्ययन करके कोई भी व्यक्ति अपने कार्य में दक्षता प्राप्त करके व्यक्तिगत उन्नति के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
(iv) अवकाश के समय का सदुपयोगः पुस्तकालयों द्वारा जन साधारण को अपने अवकाश के समय का सदुपयोग और स्वस्थ मनोरंजन प्राप्त होता है। इनके द्वारा सभी को निष्पक्ष रूप से सभी विषयों पर आधुनिकतम सूचना और पाठ्य सामग्री प्राप्त होती है। पश्चिम के देशों में 18वीं शताब्दी के अन्त में ऐसे अनेक पुस्तकालय स्थापित किये गये जो अल्प शुल्क लेकर जनता को हल्का-फुल्का साहित्य उपलब्ध कराते थे। भारत में भी अनेक ऐसे पुस्तकालय स्थापित किये गये और आज भी कार्यरत हैं। आधुनिक जन पुस्तकालयों का भी एक महत्वपूर्ण कार्य जन साधारण को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करना माना जाता है।
(v) आजीवन स्वशिक्षा का सशक्त माध्यमः पुस्तकालय जन साधारण को आजीवन स्वशिक्षा प्राप्त करने में सहायक हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में बेन्जामिन फ्रेंकलिन द्वारा 18वीं शताब्दी शताब्दी के आरम्भ में ‘समाज ग्रन्थालय’ स्थापित करने का आन्दोलन चलाया गया जो किसी व्यक्ति को स्वशिक्षा प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होते थे। यदि समाज का कोई सदस्य आत्मोन्नति के लिये स्वशिक्षा का अभिलाषी है तो उसके लिये पुस्तकालय ही एकमात्र ऐसी संस्था है।
(vi) प्रजातंत्र की सफलता और राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, सद्भावना तथा एकता में वृद्धिः प्रजातंत्र की सफलता एक बड़ी सीमा तक भली प्रकार सूचित नागरिकत्व पर निर्भर करती है। जन पुस्तकालय इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं और जन साधारण को भली-भांति सूचित रखते हैं जिससे वह अपने अधिकारों और कर्तव्यों का ठीक प्रकार से निर्वहन कर सकें। पुस्तकालयों द्वारा पारस्परिक सहयोग तथा सद्भावना, राष्ट्रीय एकता, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सद्भावना और सहयोग की वृद्धि होती है। यूनेस्को ने कहा है बिना सार्वजनिक पुस्तकालयों के सहयोग के कोई भी सही प्रजातन्त्र समाज में सफल नहीं हो सकता है और न ही बिना शारीरिक एवं मानसिक स्वतन्त्रता के।
(vii) सामाजिक परिवर्तनः भारतीय संविधान में भारत के समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता प्रदान करने और जन साधारण की अभिलाषाओं को पूर्ण करना उद्देश्य बनाया गया है। अतः इसका उद्देश्य एक नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना है जहाँ सभी को न्याय, स्वतंत्रता और समानता प्राप्त हो सके। पुस्तकालय इस सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में जन साधारण की अभिलाषाओं की पूर्ति में सहायक सिद्ध हो सकता है। एक जन पुस्तकालय बिना किसी भेदभाव के सबको निःशुल्क ग्रन्थ और सूचना प्रदान करता है। अतः एक जन पुस्तकालय उपयुक्त ग्रन्थ और सूचना प्रदान करके किन्हीं समूह विशेषों के भेद-भावपूर्ण व्यवहार का प्रतिरोध करने के लिये जन साधारण के दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकता है। एक जन पुस्तकालय शिक्षा की समानता प्रदान कर समाज की समस्याओं का निराकरण प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। उसके दवारा राजनैतिक और सामाजिक चेतना प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार पुस्तकालय सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध होता है।
सारांश : पुस्तकालय एक सामाजिक जन संस्था है। वह किसी भी शैक्षणिक कार्यक्रम का अंतरंग अंग हैं। एक जन पुस्तकालय निरन्तर समाज-कल्याण में रत रहते हुए बिना किसी भेद-भाव के सभी को निः शुल्क ज्ञान वितरित करता है और मानवता की साहित्यिक और बौद्धिक उपलब्धियों को आगामी पीढ़ियों के उपयोगार्थ हेतु सदैव सर्वदा को सुरक्षित रखता है। पहिले पुस्तकालयों का मुख्य कार्य ग्रन्थों का परिरक्षण माना जाता था। अब उनके परिरक्षण के साथ उपयोग को अधिकाधिक गति देना माना जाता है। पुस्तकालयों के उद्भव और विद्यमान होने के लिये कुछ पूर्व अपेक्षित और अनुकूल दशायें हैं। भारत में शनैः शनैः उन दशाओं का निर्माण हो रहा है। इस पुनीत कार्य में सरकार और जनता को बढ़ कर आगे आना चाहिये।
पुस्तकालय कई प्रकार के होते हैं जैसे -जन पुस्तकालय, शैक्षणिक पुस्तकालय, विशिष्ट तथा शोध पुस्तकालय और राष्ट्रीय एवं राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय आदि। समाज निर्माण में इनकी अपनी महती भूमिका है। आधुनिक पुस्तकालय एक जटिल संस्था है और उसका कार्य तथा भूमिका समाज को नितान्त उपयोगी हैं।
अभ्यासार्थ प्रश्न
- ‘पुस्तकालय एक सामाजिक जन संस्था है।’ इस कथन की समीक्षा करते हुए बताइये कि पुस्तकालय किस प्रकार समाज की बौद्धिक मांगों को पूरा करते हैं।
- आधुनिक पुस्तकालय की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये और पुस्तकालयों का उद्भव और विद्यमान होने के लिये पूर्व अपेक्षित दशाओं का वर्णन कीजिये।
- भारत में पुस्तकालय विकास के मार्ग में क्या बाधायें हैं? पुस्तकालय विकास के कारकों का वर्णन कीजिये।
- पुस्तकालयों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करते हुए उनके कार्यों और समाज में उनकी भूमिका का वर्णन किजिये।
पारिभाषिक शब्दावली - अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education): ऐसी शिक्षा से तात्पर्य है जो किसी शिक्षण संस्था में शिक्षकों के माध्यम से प्राप्त न की जाकर स्वयं अन्य किसी सार्वजनिक माध्यम से प्राप्त की जाती है।
- अणु ग्रन्थ (Micro documents): ऐसे प्रलेख जो आकार में छोटे होते हैं जैसे पत्र- पत्रिकाओं में लेख, पेटेन्ट्स, मानक (standard), शोध प्रतिवेदन आदि।
- औपचारिक शिक्षा (Formal Education): वह शिक्षा जो किसी व्यक्ति दारा शिक्षकों के माध्यम से किसी शिक्षण संस्था से प्राप्त की जाती है।
- पुस्तकालय तन्त्र (Library System): एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिसमें विभिन्न पुस्तकालय अलग-अलग न होकर परस्पर सम्बद्ध होते हैं।
- पाण्डुलिपियाँ (Manuscripts): हस्तलिखित ग्रन्थ।
- विशिष्ट पाठक (Specialist Reader): ऐसा पाठक जो किसी विशिष्ट विषय का विशेषज्ञ होता है और अपने विषय पर समग्र पाठ्य सामग्री का अभिलाषी होता है।
- वृहद ग्रन्थ (Macro Document): विशाल ग्रन्थ जैसे पुस्तक आदि।
- सामान्य पाठक (Generalist Reader): जो किसी एक विशिष्ट विषय का विशेषज्ञ नहीं होता और कई विषयों पर सामान्य पाठ्य-सामग्री का अभिलाषी होता है।
पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्र (Five Laws of Library Science)
पंच सूत्र (Five Laws)
पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्रों का प्रतिपादन भारत में पुस्तकालय आन्दोलन के जनक शियाली रामामृत रंगनाथन ने किया। रंगनाथन एक सर्वोत्कृष्ट पुस्तकालय वैज्ञानिक थे। आपने पुस्तकालय विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक विधि को प्रायोज्य किया और इस उद्देश्य के लिये उन्होनें आदर्शक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिनको सूत्र (Laws), उपसूत्र (Canons) और सिद्धान्तों (Principles) का नाम दिया है।
आपने सूत्र, उपसूत्र और सिद्धान्त नामक शब्दों का उपयोग एक विशेष सन्दर्भ में किया
(i) सूत्र (laws): मुख्य वर्ग के सन्दर्भ में जैसे अर्थशास्त्र, भौतिकी, रसायन और पुस्तकालय विज्ञान आदि।
(ii) उपसूत्र (Canons): मुख्य वर्ग के विभाजन के प्रथम क्रम में जैसे वर्गीकरण, सूचीकरण आदि
(iii) सिद्धान्त (Principles): मुख्य वर्ग के विभाजन के द्वितीय क्रम तथा बाद के क्रमों में
जैसे वर्गीकरण में मुख अनुक्रम (Facet Sequence) रंगनाथन ने सन् 1924 में ही पुस्तकालय विज्ञान के पंच सूत्रों की पकड़ कर ली थी। परन्तु उनका अभिव्यक्तिकरण 1928 में हो सका। सन् 1931 में “Five Laws of Library Science” के नाम से उनका प्रकाशन हुआ। यह एक वरेण्य ग्रन्थ (classic) है जो पंच सूत्रों और उनके निहितार्थों को विस्तार से वर्णित करता है। यह सूत्र पुस्तकालय विज्ञान को वैज्ञानिक अभिगम प्रदान करते हैं। कालान्तर में रंगनाथन ने इन सूत्रों को अपनी समस्त रचनाओं में प्रायोज्य किया और यह पुस्तकालय विज्ञान रूपी विशाल भवन के पाँच स्तम्भ बन गये जिन पर वह प्रस्थापित है। ये पंच सूत्र पुस्तकालय विज्ञान की आधारशिला हैं और पुस्तकालय विज्ञान, पुस्तकालय सेवा और पुस्तकालय व्यवसाय की किसी भी समस्या के निराकरण हेतु प्रायोज्य हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इनमें भूत, वर्तमान और भविष्य के समस्त पुस्तकालय व्यवहार सन्निहित हैं। नवागत व्यवहारों के लिये भी यह सदैव प्रायोज्य हैं। ये सूत्र निम्नानुसार है:
प्रथम सूत्रः ग्रन्थ उपयोगार्थ हैं (Book are for use)
द्वितीय सूत्रः ग्रन्थ सर्वार्थ हैं/प्रत्येक पाठक को उसका अभीष्ट ग्रन्थ प्राप्त हो (Book are for all/Every Reader his/her book)
तृतीय सूत्रः प्रत्येक ग्रन्थ को उसको उपयुक्त पाठक प्राप्त हो (Every Book its Reader)
चतुर्थ सूत्र : पाठक का समय बचाओ (Save the time of Reader)
पंचम सूत्र : पुस्तकालय एक विकासशील संस्था है (Library is a Growing Organisation)
टिप्पणी : वर्तमान प्रसंग में अंग्रेजी के शब्द “book” के स्थान पर “document” शब्द का उपयोग अधिक समीचीन होगा क्योंकि यह विस्तृत भाव का द्योतक है। पॉलिन ए. अथर्टन ने इन पंच सूत्रों का समालोचात्मक परीक्षण अपने सुविख्यात ग्रन्थ “Putting Knowledge to Work” में किया है।
प्रथम सूत्र : ग्रन्थ उपयोगार्थ हैं (Books are for Use)
पुस्तकालय विज्ञान का प्रथम सूत्र एक अत्यंत सरल कथन है जो स्वस्पष्ट है और सभी लोग इससे सहमत होंगे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की राय में भी “किसी पुस्तकालय का महत्व पाठ्य-सामग्री के उपयोग विस्तार से न कि ग्रन्थों की भामिक (Staggering) संख्या से निर्णीत होता है।” व्यवहार में इस सूत्र की प्राचीन काल में और मध्यकाल में पूर्णतः उपेक्षा होती रही थी, पुस्तकालयों को ग्रन्थों का भण्डार गृह माना जाता था और ग्रन्थालयी का प्रमुख कार्य ग्रन्थों का ‘परिरक्षण’ होता था। वह ग्रन्थों का उपयोग करने के लिये जनसाधारण को तनिक भी प्रोत्साहित नहीं करता था। दूसरे शब्दों में ग्रन्थों के ‘उपयोग’ का पक्ष ‘गौण’ और ‘सुरक्षा’ का पक्ष ‘प्रबल’ होता था। इसका मुख्य कारण ग्रन्थों का मूल्यवान, अलभ्य (rare) तथा अप्राप्य होना था। मुद्रण के आविष्कार से उपरोक्त स्थिति समाप्त हो गई और ग्रन्थ मूल्यवान, अलभ्य और अप्राप्य नहीं रहे। अब अनेक प्रगतिशील और विकसित देशों में पुस्तकालय सम्बन्धी दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया है। परन्तु कहीं-कहीं अभी भी पुराने दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं हुआ है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। आज निःशुल्क जन पुस्तकालय सेवा प्रदान करना राज्य और सरकार का आवश्यक कार्य माना जाता है। आधुनिक पुस्तकालय ग्रन्थों का अर्जन, प्रस्तुतीकरण (Processing) आदि उनके उपयोगार्थ हेतु प्रस्तुत करते हैं। पुस्तकालयों में अबाध प्रवेश्य प्रणाली (Open Access System) अपनायी जाने लगी है। ग्रन्थ पाठकों के घर भेजे जाते हैं। चल पुस्तकालय सेवा संचालित की जाती है। आधुनिक पुस्तकालय का दायित्व प्रत्येक सम्भाव्य पाठक को वास्तविक पाठक और पुस्तकालय आने का अभ्यस्त जान है।
प्रथम सूत्र ने पुस्तकालय से सम्बन्धित निम्नांकित बातों को प्रमुख रूप से प्रभावित किया है और उनमें आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है:
- पुस्तकालय भवन का स्थान निर्धारण (Location) और निर्माण; 2.
पुस्तकालय कार्यकाल (Library Hours) - पुस्तकालय उपस्कर और साज-सज्जा (Furniture and Equipments)
- TAGORE (RN): Function of a Library (Address as Chairman, Reception Committee, All India Library held at Calcutta in 1938).
- पुस्तकालय के नियम विनियम (Rules-regulation)
- पुस्तकालय कर्मचारीगण (Staff)
- ग्रन्थ चयन (Book Selection)