स्वतन्त्रता उत्तरोत्तर भारत में पुस्तकालय विकास (Library Development in India Since Independence)
पुस्तकालय विकास से तात्पर्य : पुस्तकालय आन्दोलन से तात्पर्य ऐसे प्रयास एवं गतिविधियों से है, जिसके दारा जनसाधारण के उपयोग के लिये और उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप जन पुस्तकालयों (Public Libraries) का घना और परस्पर सम्बद्ध तन्त्र स्थापित किया जा सके। जबकि पुस्तकालय विकास से तात्पर्य है इस परिवर्तनशील काल में स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रकार के पुस्तकालयों को स्थापित कर नये विकास क्रम को दर्शाना। “पुस्तकालय आन्दोलन” का अर्थ है पुस्तकालयों का नियोजित विकास (Planned Development)। पुस्तकालय विकास को पुस्तकालय आन्दोलन का प्रथम पक्ष माना जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से ‘पुस्तकालय विकास’ और ‘पुस्तकालय आन्दोलन’ को परस्पर पर्याय माना जाता है।
भारत में पुस्तकालय विकास में बाधायें
- साक्षरता का अभाव. अभी भी देश की 40% जनसंख्या साक्षर नहीं है। ऐसी स्थिति में जनसाधारण की ओर से पुस्तकालय की माँग करना सम्भव नहीं है।
- निर्धनताः अभी इस देश में जीवन की तीन आधारभूत आवश्यकताओं अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की सम्पूर्ति ही सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में वांछित पुस्तकालय सेवा स्थापित करने की ओर सरकार का ध्यान नहीं है।
- जनसंख्या का बिखराव. भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या छोटे-छोटे ग्रामों और पुरवों (Hamlets) में निवास करती है। इनमें पुस्तकालय सेवा केवल चल पुस्तकालयों के माध्यम से ही प्रदान की जा सकती है जो अत्यन्त महंगा साधन
- स्त्रियों की सामाजिक दशाः आज भी भारत के अधिकांश भाग में स्त्रियों को पढ़ाना- लिखाना अनावश्यक समझा जाता है। अभी भी पर्दा प्रथा का प्रचलन है। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चार-दीवारी माना जाता है। अतः आधी के लगभग जनता को ग्रन्थों तथा पुस्तकालय की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती।
- विद्यार्जन की रूढ़िवादी परम्पराः प्राचीन काल में पठन-पाठन पर केवल ब्राह्मणों का ही अधिकार माना जाता था। इसके अतिरिक्त ‘विद्याकंठ की’ लोकोक्ति ही महत्व दिया जाता था। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति का जनतन्त्रात्मक भावना का विकास नहीं हो सका।
- पुस्तकों, विशेष रूप से भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य का अभाव : इसका प्रमुख कारण अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना है।
- पुस्तकालय चेतना (Library Consciousness) का अभावः हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों में नई-नई पुस्तकों के पढ़ने का चाव नहीं है। शिक्षित लोग भी पुस्तकालय सेवा के अभाव को अनुभव नहीं करते हैं और न ही उनकी स्थापना के लिये सक्रिय प्रयास करते है।
- अभिप्रेरणा (Motivation) का अभाव. जनसाधारण में किसी भी जन-कल्याण के कार्य के प्रति रुचि नहीं है। पुस्तकालय विकास के लिये भी अभिप्रेरणा का अभाव है।
- शासकीय पहल तथा पुस्तकालय अधिनियम का अभाव भारत में शिक्षा मुख्यतः राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र में आता है। राज्य सरकारें पुस्तकालय विकास के प्रति तनिक भी उत्सुक नहीं है। इसी कारण आज भी भारत में अनेक राज्यों में पुस्तकालय अधिनियम पारित नहीं हो सके है।
बड़ौदा राज्य में पुस्तकालय विकास : भारत में पुस्तकालयों के विकास का शुभारम्भ सन् 1910 में करने का श्रेय बड़ौदा नरेश महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ को दिया जाता है। जब तत्कालीन बड़ौदा नरेश महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ ने अपनी रियासत बड़ौदा में अमरीकन ग्रंथालयी डब्ल्यू. एस. बोर्डन के माध्यम से उनके तीन वर्ष के कार्यकाल में अपने पूरे राज्य में जन पुस्तकालय तन्त्र की स्थापना की।
पुस्तकालय विकार के लिये समितियाँ
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात पुस्तकालय विकास के लिये निम्नलिखित प्रमुख समितियाँ नियुक्त की गई। - पुस्तकालय परामर्शदात्री समिति (Advisory Committee for Libraries): भारत सरकार विद्यमान पुस्तकालयों के सर्वेक्षण तथा समस्त देश में पुस्तकालय योजनाओं के विकास के लिये सन् 1957 में के.पी. सिन्हा की अध्यक्षता में “पुस्तकालय परामर्शदात्री समिति” की स्थापना की जिसने 12 नवम्बर 1958 भारत सरकार को अपना प्रतिवेदन किया। इसकी प्रमुख अनुशंसायें निम्नानुसार हैं-
- भारत के प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क पुस्तकालय सेवा प्राप्त होना चाहिये।
- देश की पुस्तकालय संरचना में एक राष्ट्रीय केन्द्रीय पुस्तकालय, तीन राष्ट्रीय ग्रन्थ निक्षेपागारों (Depositories), राज्यों में राज्य केन्द्रीय पुस्तकालयों, मण्डल (District) पुस्तकालयों, नगर पुस्तकालयों, ब्लॉक पुस्तकालयों तथा पंचायत पुस्तकालयों की स्थापन होना चाहिये।
- राज्य सरकारों को पुस्तकालय अधिनियम पारित करने चाहिये।
- प्रत्येक राज्य में एक स्वतन्त्र समाज शिक्षा तथा पुस्तकालय संचालन की स्थापना होनी चाहिये।
- राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय का ग्रंथालयी, पुस्तकालय विभाग का प्रमुख तकनीकी सलाहकार होना चाहिये।
- राज्यों में पुस्तकालय संघ होने चाहिये जो समयानुसार वर्कशॉप, सेमिनार, पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन कर सके।’
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग समिति. इस समिति की नियुक्ति भारत के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हारा रंगनाथन की अध्यक्षता में सन् 1958 में की गई। इसने अपना प्रतिवेदन सन् 1959 में आयोग को प्रस्तुत किया। इस समिति ने विश्वविद्यालय और महाविद्यालय पुस्तकालय भवन की योजना तथा निर्माण, खाज-सज्जा तथा उपस्कर, पुस्तकालय प्रशासन, पुस्तकालय कर्मियों का प्रशिक्षण, वेतन तथा संख्या आदि के सम्बन्ध में अपने सुझाव आयोग को प्रस्तुत किये जिनको आयोग ने मान्य किया। - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पर्यवेक्षण समिति आयोग द्वारा: इस समिति की नियुक्ति भी रंगनाथन की अध्यक्षता में जुलाई सन् 1961 में की गई थी और सन् 1965 में इसने अपना प्रतिवेदन “Library Science in Indian Universities” के नाम से प्रस्तुत किया। इसने पुस्तकालय प्रशिक्षण एवं शोध के संबंध में अपने सुझाव आयोग को प्रस्तुत किये जिनको आयोग ने मान्य किया।
पुस्तकालय प्रशिक्षण तथा साहित्य
प्रशिक्षण. स्वतन्त्रता से पूर्व ही भारत में पुस्तकालय प्रशिक्षण और साहित्य रचना का कार्य आरम्भ हो गया था। प्रथम पुस्तकालय पाठ्यचर्या डब्ल्यू एस बोर्डन द्वारा सन् 1911 में आरम्भ की गई। तत्पश्चात् ए.डी. डिकिन्सन ने सन् 1915 में पंजाब विश्वविद्यालय में पुस्तकालय प्रशिक्षण का शुभारम्भ किया। परन्तु प्रशिक्षण का वास्तविक इतिहास और विकास सन् 1933 से आरम्भ होता है जब रंगनाथन ने मद्रास विश्वविद्यालय में पुस्तकालय विज्ञान में प्रमाण-पत्र स्तर का प्रशिक्षण आरम्भ किया। सन् 1937 में मद्रास विश्वविद्यालय में ही रंगनाथन के सप्रयासों से उपाधि-पत्र पाठ्यचर्या आरम्भ हुई। सन् 1941 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सन् 1949 में दिल्ली विश्वविद्यालय में उपाधि-पत्र पाठ्यचर्या की संस्थापना हुई।
स्वतंत्रता के उपरान्त पुस्तकालय तथा सूचना विज्ञान शिक्षा गे आशातीत प्रगति हुई और अब भारत के अनेक विश्वविद्यालय (लगभग 100) इस विषय में शिक्षण प्रदान करते हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों में यह निम्नांकित तीन स्तरों पर अध्ययन करवाया जाता है: - स्नातक स्तर (बैचलर ऑफ लॉयब्रेरी एण्ड इन्फॉर्मेशन साइंस)
- स्नातकोत्तर स्तर (मास्टर ऑफ लॉयब्रेरी एण्ड इन्फॉर्मेशन साइंस)
- एम.फिल. इन लॉयब्रेरी एण्ड इन्फॉर्मेशन साइंस।?
- पी-एच.डी. इन लॉयब्रेरी एण्ड इन्फॉर्मेशन साइंस
प्रमाणपत्र और उपाधि पत्र (Diploma) स्तर का प्रशिक्षण सामान्यतः राज्य संघों द्वारा प्रदान किया जाता है।
डाक्यूमेन्टेशन रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग सेन्टर (DRTC), बैंगलौर, इंडियन नेशनल साइंटिफिक डाक्यूमेन्टेशन सेन्टर (IASLIC), इकाई, नई दिल्ली तथा इण्डियन एसोसियेशन ऑफ स्पेशल
लायब्रेरी एण्ड इन्फॉर्मेशन सेन्टरस (IASLIC), कोलकाता दास प्रलेखन और विशिष्ट ग्रंथालयीनता में प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।
साहित्यः भारत में पुस्तकालय विज्ञान की सर्वप्रथम पुस्तक सन् 1903 में इम्पीरियल लायब्रेरी, कोलकाता के अंग्रेज पुस्तकालय ग्रन्थालयी जे. मेक्फॉरलेन दारा लिखी गयी। सन् 1913 में बी.एच. मेहता ने अपनी पुस्तक “हिंट्स ऑन लॉयब्रेरी एडमिनिस्ट्रेशन” का प्रकाशन सूरत से किया। तत्पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय के अमरीकन ग्रन्थालयी ए.डी. डिकिन्सन कृत पुस्तक सन् 1916 में “पंजाब लॉयब्रेरी प्राइमर” के नाम से प्रकाशित हुई।
बी.सी. विकरी (B.C. Vickery) के अनुसार, “भारत में रचित पुस्तकालय विज्ञान साहित्य अनूठा है जिसकी तुलना संसार के किसी अन्य देश में रचित पुस्तकालय विज्ञान साहित्य से नहीं की जा सकती। जबकि अधिकांश अंग्रेजी और अमरीकन पाद्य-गन्ध इसका वर्णन करके सन्तुष्ट हो जाते हैं कि “पुस्तकालय विज्ञान है?’, भारतीय रचनायें लगभग पूर्णतया “पुस्तकालय विज्ञान क्या होना चाहिये?” से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार के ग्रन्थों की रचना का श्रेय लगभग पूर्णतया एक व्यक्ति डॉ. शियाली रामामृत रंगनाथन की दूर-दृष्टि तथा अथक परिश्रम का परिणाम है।” आपने पुस्तकालय विज्ञान को सैद्धांतिक और वैज्ञानिक स्तर प्रदान किया। आपका सर्वप्रथम अमर ग्रन्थ “फाइव लॉज ऑफ लॉयब्रेरी साइंस” सन् 1931 में प्रकाशित हुआ। आपके अन्य ग्रन्थों में सन् 1933 में प्रकाशित “कोलन क्लासीफिकेशन” और सन् 1934 में प्रकाशित “क्लासीफाइड केटॉलॉग कोड’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आपके दारा रचित अथवा सम्पादित लगभग 60 अन्य ग्रन्थ और लगभग 1000 लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
अन्य भारतीय विद्वानों ने भी आंग्ल भाषा तथा भारतीय भाषाओं में पुस्तकालय विज्ञान पर ग्रन्थों की रचना की। ग्रन्थ सन्दर्भ सूचियों (bibliographies) तथा अनुक्रमणिकाओं (indexes) का भी संकलन किया गया। ग्रन्थों के अतिरिक्त भारत से आंग्ल और भारतीय भाषाओं में आवधिक प्रकाशनों (Periodical) का भी प्रकाशन किया गया जिनकी संख्या 25 से अधिक ही है।
पुस्तकालय संघ
अखिल भारतीय जन पुस्तकालय संघ (All India Public Library Association): इस संघ की स्थापना सन् 1920 में हुई। इसके अनेक अधिवेशन हुए जिनमें डॉ. एस. राधाकृष्णन, श्री सी.आर दास, डॉ. मोतीचन्द्र आदि महापुरुषों का सहयोग प्राप्त हुआ। सन. 1939 में यह संघ भंग हो गया।
भारतीय पुस्तकालय संघ (Indian Library Association ILA) इस संघ की स्थापना 12 दिसम्बर सन् 1933 को की गई इसके प्रथम अध्यक्ष पंजाब विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति ए.सी. वूलनर और प्रथम सचिव इम्पीरियल लायब्रेरी, कोलकाता के ग्रंथालयी के.एम. असादुल्ला खान निर्वाचित हुए
इस संघ के उद्देश्य निम्नानुसार निश्चित किये गये- - भारत में पुस्तकालय आन्दोलन को गति प्रदान करना,
- पुस्तकालय विज्ञान में शोध कार्य को गति प्रदान करना,
- भारत में ग्रन्थालयियों के प्रशिक्षित वर्ग को जन्म देकर उसकी उन्नति करना,
- ग्रन्थालयियों के स्तर तथा कार्य करने की दशाओं में सुधार करवाना, और
- समान उद्देश्य के अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सहयोग करना।
आरंभिक वर्षों में यह संघ कुछ विशेष सक्रिय नहीं रहा। सन् 1946 से 1953 तक रंगनाथन की अध्यक्षता में इस संघ ने उल्लेखनीय कार्य किया। संघ को केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से अनुदान भी प्राप्त होता है। इसके सम्मेलन अब प्रतिवर्ष भारत के प्रमुख नगरों में होते है। संघ के द्वारा अंग्रेजी तथा हिन्दी में ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया गया है। इस संघ ने सन. 1938 में ‘इण्डियन लॉयब्रेरी डायरेक्टरी का प्रकाशन किया जिसके संशोधित संस्करण 1942 और 1951 एवं 1988 में प्रकाशित किये गये। इस संघ ने पुस्तकालय विज्ञान में पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया है। आजकल इस संघ दारा ‘आई.एल.ए. बुलेटिन (ILA Bulletin) के नाम से वर्ष 1965 से निरंतर एक त्रैमासिक प्रत्रिका का प्रकाशन होता रहा है।
इस संस्था का अपना भवन नई दिल्ली में स्थित है जिसमें कुछ वैतनिक कर्मचारी भी कार्यरत हैं। निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि इस राष्ट्रीय संघ के क्रियाकलाप एक अखिल भारतीय पुस्तकालय संघ के अनुरूप नहीं रहे हैं जिसका मुख्य कारण पुस्तकालय व्यावसायियों की उदासीनता।
भारतीय विशिष्ट पुस्तकालयों तथा सूचना केन्द्रों का संघ (Indian Association of Special Libraries and information Centres = IASLIC): इस संघ की स्थापना 3 सितम्बर सन् 1955 को की गई। डॉ. एल.एल. होरा इसके प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए और इसका प्रथम अधिवेशन सन् 1986 में कलकत्ता में हुआ। इस संघ के उद्देश्य निम्नानुसार हूँ - पुस्तकालय प्रशिक्षण में योगदान
- पुस्तकालय साहित्य का प्रकाशन तथा पुस्तकालय प्रचार,
- ग्रन्थ पुनरुत्पादन,
- प्रलेखन,
- सूचना सेवायें, और
- पुस्तकालय सहयोग तथा समन्वय।
इस संघ का मुख्यालय कोलकाता में है। अब तक इस संघ के अनेक सम्मेलन देश के विभिन्न नगरों में हो चुके हैं। इस संघ के सदस्यों में ग्रन्थालयियों और सूचना अधिकारियों के अतिरिक्त वैज्ञानिक, शिक्षाविद् प्रशासक आदि भी सम्मिलित करके उनको ग्रन्थालयियों के संसर्ग में लाने का प्रयास किया गया है।
इस संघ के द्वारा विशिष्ट ग्रंथालयीनता और प्रलेखन में प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। जर्मन और रशियन भाषाओं की कक्षायें भी संचालित की जाती है। संघ के द्वारा ‘ आइसलिक बुलेटिन (laslic Bulletin,)’ तथा इण्डियन लॉयब्रेरी साइंस एब्ट्रेक्ट्स (Indian Library) नामक त्रैमासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट ग्रंथालयीनता तथा प्रलेखन पर कुछ ग्रंथो का प्रकाशन भी किया गया है। “डायरेक्टरी ऑफ स्पेशल एण्ड रिसर्च लॉयब्रेरीज़ इन इण्डिया’ का भी प्रकाशन इस संघ के दारा किया गया है। यह संघ अल्प शुल्क पर ग्रन्थ पुनरुत्पादन और सेवायें भी प्रदान करता है।
यह संघ इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ लॉयब्रेरीज़ एसोसियेशन (IFLA), तथा इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ डाक्यूमेन्टेशन (FID) से भी सम्बद्ध है।
विभिन्न प्रादेशिक तथा क्षेत्रीय पुस्तकालय संघः उपरोक्त अखिल भारतीय संघों के अतिरिक्त लगभग प्रत्येक राज्य में पुस्तकालय संघों का गठन किया गया है और क्षेत्रीय पुस्तकालय संघ भी कार्यरत है।
पुस्तकालय अधिनियम
पुस्तकालय विकास और आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण चरण पुस्तकालय अधिनियम पारित होना है।
भारत में इस दिशा में भी सक्रिय प्रयास किये गये हैं। सर्वप्रथम सन् 1869 में “दी प्रेस एण्ड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट (XXV)’ के नाम से पारित हुआ।
सन् 1902 में भारत सरकार ने “इम्पीरियल लॉयब्रेरी एक्ट (इन्डेन्चरस वेलीडेशन)” पारित किया जिसके अनुसार “कलकत्ता पब्लिक लॉयब्रेरी” को “इम्पीरियल लॉयब्रेरी” बनाया गया। सन् 1948 में भारत सरकार दारा राष्ट्रीय पुस्तकालय पर एक समिति की नियुक्ति की गई। रंगनाथन ने इस समिति के सदस्य के रूप में पुस्तकालय अधिनियम का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसमें राष्ट्रीय केन्द्रीय पुस्तकालय को दिल्ली में स्थापित करने का सुझाव दिया गया। सन् 194 8 में ही भारत सरकार ने ‘दी इम्पीरियल लॉयब्रेरी (चेंज ऑफ नेम), एक्ट 1948’ पारित किया जिसके अनुसार “इम्पीरियल लॉयब्रेरी” को “नेशनल लॉयब्रेरी ऑफ इण्डिया” घोषित किया गया।
सन् 1954 में केन्द्रीय सरकार ने “दी डिलीवरी ऑफ बुक्स (पब्लिक लॉयब्रेरीज़) एक्ट” पारित किया। सन् 1956 में इसमें संशोधन करके समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं को भी सम्मिलित कर लिया गया। इन अधिनियमों के अधीन प्रत्येक प्रकाशक को अपने प्रकाशनों की एक प्रति राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता तथा एक-एक प्रति अन्य तीन जन पुस्तकालयों को जिनको भारत सरकार निर्देश दे, अपने व्यय पर निःशुल्क भेजनी पड़ती हैं। वे तीन अन्य पुस्तकालय हैं- कोनेमेरा पब्लिक लॉयब्रेरी, चेन्नई, एशियाटिक सोसाइटी लॉयब्रेरी, मुम्बई और दिल्ली पालक लॉयब्रेरी, दिल्ली। इनको डिपाजिटरी लॉयब्रेरी कहा जाता है। इस प्रकार एकत्रित की हुई पाद्य-सामग्री के आधार पर सेन्ट्रल रेफरेन्स लॉयब्रेरी, कलकत्ता हारा “इंडियन नेशनल बिब्लियोग्राफी” का संकलन और प्रकाशन किया जाता है।
भारत में जन पुस्तकालय अधिनियम की विचारधारा भी रंगनाथन की देन है। आपने बहुत पहिले एक “मॉडल पब्लिक लॉयब्रेरी एक्ट” कार प्रारूप तैयार किया। सन् 1963 में भारत सरकार ने एक आदर्श पुस्तकालय विधेयक तैयार किया जिसका प्रारूप सन् 1985 में निर्मित करके विभिन्न राज्य सरकारों के विचारार्थ प्रेषित किया गया जिससे उसके अनुरूप पुस्तकालय – अधिनियम पारित कर सकें
भारतीय राज्यों में सर्वप्रथम जन पुस्तकालय अधिनियम रंगनाथन के सप्रयासों से तत्कालीन मद्रास राज्य (वर्तमान में तमिलनाडु) में सन् 1948 में पारित हुआ। उसके पश्चात् अब तक 11 अन्य राज्यों में पुस्तकालय अधिनियम पारित हो चुके हैं। इन सबकी जानकारी निम्नांकित तालिका से हो जायेगी:
क्र,राज्य, अधिनियम का नाम, पारित होने का वर्ष
तमिलनाडु, तमिलनाडु लॉयब्रेरीज एक्ट,1948
आंध्रप्रदेश आंध्रप्रदेश पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1960
कर्नाटक कर्नाटक पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1965
महाराष्ट्र महाराष्ट्र पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1967
पश्चिम बंगाल वेस्ट बंगाल पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1979
केरल केरल पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1987
हरियाणा हरियाणा पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1987
मणिपुर मणिपुर पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1988
मिजोरम मिजोरम पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1993
गोवा गोवा पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 1993
गुजरात गुजरात पब्लिक लॉयब्रेरीज एक्ट 2001
कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त राज्यों में किसी सीमा तक जन, पुस्तकालयों का विकास हो गया है। शेष राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आसाम, उड़ीसा, बिहार आदि में अभी भी जन पुस्तकालय अधिनियमों का अभाव है।
शैक्षणिक पुस्तकालय
शैक्षणिक पुस्तकालयों के अन्तर्गत विद्यालयीन पुस्तकालय, महाविद्यालयीन पुस्तकालय। और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय आते हैं। नीचे इनके विकास से संबन्धित संक्षिप्त चर्चा की गई है।
विद्यालयीन पुस्तकालय स्वतन्त्रता उपरान्त निरक्षरता उन्मूलन पर पर्याप्त बल दिया गया। अपितु, बड़ी संख्या में विद्यालयों की स्थापना की गई। परन्तु विद्यालयीन शिक्षा में पुस्तकालयों की भूमिका को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। भारत सरकार ने सन् 1986 में ‘नई शिक्षा नीति’ की घोषणा की। विद्यालयीन पुस्तकालय की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका और उत्तरदायित्व निर्धारित किया गया। राष्ट्रीय शैक्षणिक तथा अनुसंधान परिषद (NCERT) द्वारा किये गये तृतीय अखिल भारतीय शैक्षणिक सर्वेक्षण (1981) के अनुसार विद्यालयीन पुस्तकालयों की स्थिति निम्नानुसार थीः “मान्यता प्राप्त विद्यालयों की संख्या 5, 89, 031 है जिनमें से केवल 41.08% में ही पुस्तकालय सुविधायें प्राप्त है।
दुःख का विषय है कि विद्यालयीन पुस्तकालयों के विकास को आज भी समुचित महत्व नहीं दिया जा रहा है।
महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय स्वतन्त्रा प्राप्ति के पश्चात् भारत में उच्च शिक्षा का आशातीत विकास हुआ और पर्याप्त संख्या में महाविदयालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। रंगनाथन के सप्रयासों और विश्वविद्याल के उदार अनुदानों से भारत में विश्वविद्यालयीन तथा महाविद्यालयीन पुस्तक, 64/251 विकास हुआ आयोग दारा केवल भवन अनुदान, उपस्कर अनुदान तथा ग्रन्थ अनुदान आदि ही न देकर, पुस्तकालय कर्मचारियों की ओर भी ध्यान दिया गया। अब भारत में विश्वविद्यालयीन तथा महाविद्यालयीन पुस्तकालय कर्मचारियों को वहाँ के शिक्षकों के समकक्ष स्तर तथा वेतनमान प्राप्त है। आज देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 200 के लगभग है और लगभग 8000 महाविद्यालय हैं।
शिक्षा कार्यक्रम में ग्रन्थालयी की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बिना उसके के शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता मैं कोई वांछित सुधार संभव नहीं है। उसको शिक्षण कार्यक्रम में बराबर भागीदार मानना आवश्यक है। यदि हम नई शिक्षा नीति को सही अर्थों में लागू करना चाहते हैं तो शिक्षण कार्यक्रम’ ग्रंथालयी की भूमिका को पूर्ण रूप से स्वीकार करना होगा।
• विशिष्ट पुस्तकालय (Special Libraries)
इस समय भारत में अनेक विशिष्ट पुस्तकालय तथा सूचना केन्द्र कार्यरत हैं। यह अनुसंधान संस्थानों, तकनीकी संस्थानों, औद्योगिक संस्थानों आदि और शासकीय विभागों से सम्बद्ध हैं। इनकी स्थिति जन पुस्तकालयों की तुलना में काफी सन्तोषजनक है। परन्तु इनमें भी पर्याप्त संख्या में समुचित प्रशिक्षण प्राप्त कर्मचारियों का अभाव है। इसके अतिरिक्त इन सबमें परस्पर किसी प्रकार के सहयोग, समन्वय आदि की व्यवस्था नहीं है।
• प्रलेखन केन्द्र और विशिष्ट पुस्तकालय सेवायें
इन्सडॉक (INSDOC) सन् 1952 में यूनेस्को के सहयोग से भारत सरकार द्वारा इण्डियन नेशनल साइंटिफिक डाक्यूमेन्टेशन सेन्टर (INSDOC) की स्थापना हुई। यह संस्थान काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रीयल रिसर्च (CSIR) की ऐजेन्सी के रूप में अपने स्वतन्त्र भवन और पूर्णकालिक निदेशक के निर्देशन में नई दिल्ली में कार्यरत है। इसमें प्रमुख कार्य निम्नानुसार है:
- समस्त विश्व के उपयोगी वैज्ञानिक आवधिक प्रकाशनों (Periodical publications)को प्राप्त करना और उनका भण्डारण करना:
- वैज्ञानिकों तथा तकनीशियनों को उनके उपयोग्य प्रलेखों की सूचना करना;
- उपलब्ध स्रोतों की सहायता से विशिष्ट प्रश्नों तथा जिज्ञासाओं के प्रदान करना;
- आवश्यकता पड़ने पर, माँग पर प्रलेखों की फोटो प्रतिलिपियाँ तथा अनुवाद प्रदान करना;
- राष्ट्र के समस्त प्रकाशित और अप्रकाशित वैज्ञानिक कार्यों के लिये राष्ट्रीय निक्षेपगार के रूप में कार्य करना; और
- विश्व को भारत राष्ट्र हारा किये गये वैज्ञानिक कार्य की सूचना प्रदान करना।
इन्सडॉक में लगभग 1200 से भी ऊपर देशी-विदेशी वैज्ञानिक पत्रिकायें अर्जित की जाती हैं। इस केन्द्र में विकसित पुस्तकालय को “नेशनल साइंस लायब्रेरी” घोषित किया गया है। यह केन्द्र प्रलेखन में एक पाठ्यचर्या भी संचालित करता है। इसके हारा पुस्तकालय विज्ञान और प्रलेखन पर एक त्रैमासिक पत्रिका “एनॉल्स ऑफ लायब्रेरी एण्ड इन्फार्मेशन साइंस” का प्रकाशन भी नियमित रूप से वर्ष 1964 से हो रहा है।
इस केन्द्र के क्षेत्रीय कार्यालय भी देश के कई भागों में स्थापित किये गये हैं। या केन्द्र निम्नांकित सेवायें प्रदान करती - प्रलेख सूचियों का प्रकाशन;
- छाया पुनरुत्पादन (Reprographic) कार्य;
- अनुवाद सेवा: और
- प्रलेखन कार्य में प्रशिक्षण।
इसका प्रमुख प्रकाशन “इण्डियन साइंस एब्सट्रेक्ट्स” है। इसकी एक प्रमुख प्रायोजना “यूनियन केटॉलॉग ऑफ साइंटिफिक सीरियल्स” है जिसका संकलन कार्य प्रगति पर है।
अन्य प्रलेखन सेवाएँ इन्सडॉक के अतिरिक्त सुरक्षा सेवाओं के लिये प्रलेखन कार्य के लिये डेसीडॉक (DESIDOC) कार्यरत है। समाज विज्ञान के क्षेत्र में इन्सोडॉक (Indian Social Science Documentation Centre -NASSDOC) कार्यरत है। अन्य भारतीय बड़े संस्थान जो प्रलेखन और सूचना सेवा प्रदान कर रहे। हैं उनमें काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रीयल रिसर्च (CSIR), रिसर्च एण्ड डेवलेपमेन्ट ऑर्गेनाइजेशन भाभा ऐटोमिटक रिसर्च सेन्टर, इण्डियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (ICAR), इंडिया काउंसिल ऑफ मेडीकल रिसर्च (ICMR), इण्डियन स्टेटिस्टीकल इंस्टीट्यूट (ISI), इण्डियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स (ICWA) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
राजस्थान विश्वविद्यालय दारा भी भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के अनुक्रमणीकरण का कार्य किया रहा था। इसके लिये यहाँ से “इन्डेक्स इण्डिया” नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन होता था जो भारत में प्रकाशित होने वाले समस्त अंग्रेजी सामयिक प्रकाशनों और समाचार पत्रों के लेखों आदि के सम्बन्ध में सूचना संकलित और प्रकाशित करता था। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन एवं समाज विज्ञान शास्त्रीयों की उदासीनता के कारण पिछले कुछ वर्षों से इस अनुक्रमणीकरण पत्रिका प्रकाशित होना बन्द हो गया।
इनके अतिरिक्त दिल्ली पुस्तकालय संघ एक मासिक अनुक्रमणिका पत्रिका का प्रकाशन “इण्डियन प्रेस इंडेक्स” के नाम से करता है। व्यापारिक क्षेत्र में प्रभु बुक सर्विस दारा एक पत्रिका का प्रकाशन “ए गाइड टू इण्डियन पिरियोडिकल लिटरेचर” के नाम से होता है। यह प्रकाशन निरंतर प्रकाशित हो रहा हैं।
“इण्डियन नेशनल बिब्लियोग्राफी” का प्रकाशन सन् 1958 से भारत के राष्ट्रीय पुस्तकालय में संस्थापित, सेन्ट्रल रेफरेन्स लायब्रेरी हारा किया जा रहा है। इस वॉड्ङ्गमयी सूची पत्रिका ने भी कई उत्तर चढ़ाव देखे है लेकिन हर्ष का विषय है कि इसके अंक भले ही देरी से प्रकाशित हो रहे है लेकिन प्रकाशित अवश्य हो रहे है।
• भारत का राष्ट्रीय पुस्तकालय
31 जनवरी 1903 को “कलकत्ता पब्लिक लायब्रेरी” नामक जन पुस्तकालय को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने “इम्पीरियल लायब्रेरी” के रूप में उद्घाटित करके राष्ट्रीय महत्व की संस्था बनाया। सन् 1948 में भारत सरकार ने एक अधिनियम पारित करके इसको ‘भारत का राष्ट्रीय ग्रंथालय’ घोषित कर दिया। अब यह भारत के विशालतम पुस्तकालय के रूप में कोलकाता में बेलवेडर नामक भवन में स्थित है और भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत है।
• दिल्ली पब्लिक लॉयब्रेरी
27 अक्टूबर 1951 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने यूनेस्को के सहयोग से संस्थापित एक ‘आदर्श जन ग्रंथालय’ के रूप में इसका उद्घाटन किया और इसके संचालन के लिये “दिल्ली लॉयब्रेरी बोर्ड’ की स्थापना की गई। इसकी समस्त सेवायें बिना किसी भेद-भाव के सबको निःशुल्वा रूप से उपलब्ध हैं और केवल पुस्तकों के आदान-प्रदान तक सीमित न होकर यह एक सामुदायिक केन्द्र के रूप में कार्यरत है। दूरस्थ क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को चल पुस्तकालयों (Mobile Libraries) के माध्यम से पुस्तकालय सेवा प्रदान की जाती है। इस समय इस पुस्तकालय की लगभग 60 शाखायें और अनेक सेवा केन्द्र वृहद दिल्ली के निवासियों को पुस्तकालय सेवा प्रदान करने में संलग्न है। भारत के जन पुस्तकालय विकास में दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी की स्थापना को एक महत्वपूर्ण चरण माना जाता है।
• पुस्तकालय विकास से संबंधित प्रमुख व्यक्ति
डॉ. रंगनाथन को भारतीय पुस्तकालय आन्दोलन के जनक के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस दिशा में आपका योगदान सर्वाधिक उल्लेखनीय और प्रशंसनीय है। इनसे पूर्व बडौदा राज्य में तत्कालीन बड़ौदा नरेश महाराज सायाजीराव गायकवाड़ का नाम पुस्तकालय आन्दोलन की दृष्टि से सदैव स्मरणीय रहेगा। बड़ौदा राज्य में मोती भाई अमीन को मित्र-मण्डलों की स्थापना का श्रेय है। बंगाल में मुनीन्द्र देव राय महाशय, राजस्थान में मास्टर मोतीलाल संघी और पंजाब में सन्तराम भाटिया ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया।
• सर्वव्यापी पुस्तकालय सेवा
भारत में सर्वव्यापी पुस्तकालय सेवा प्रदान करने के लिये रंगनाथन ने निम्नानुसार अनुमान सन् 1988 में लगाया
पुस्तकालय का नाम संख्या
राष्ट्रीय केन्द्रीय पुस्तकालय 1
राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय 19
नगर केन्द्रीय पुस्तकालय112
नगर शाखा पुस्तकालय 315
ग्राम्य केन्द्रीय पुस्तकालय 1150
ग्राम्य शाखा पुस्तकालय 6580
ग्राम्य प्रदाय केन्द्र 241366
कुल सेवा केन्द्र 12069
चल पुस्तकालय 249541
ज्यों ज्यों जनसंख्या बढ़ेगी, इन आंकडों में भी बढ़ोतरी करना आवश्यक हो जायेगा।
• वर्तमान स्थिति
भारतीय जन पुस्तकालयों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं:
- शासकीय जन पुस्तकालय
- अशासकीय जन पुस्तकालय
शासकीय पुस्तकालय राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों आदि के दारा स्थापित किये गये हैं और सार्वजनिक कोष से संचालित होते हैं और सामान्यतः इनकी अधिकांश सेवायें निः शुल्क हैं। अशासकीय पुस्तकालय में से अधिकतर शासकीय अनुदान प्राप्त करते हैं, परन्तु उनकी सेवायें निः शुल्क नहीं है। जन पुस्तकालय उसको कहा जाता है जिसकी सेवायें बिना किसी भेद- भाव के सबको निः शुल्क रूप से उपलब्ध हों। अतः उनको सम्पूर्ण रूप से सार्वजनिक कोष (Public Fund) से संस्थापित करना और संचालित करना एक आदर्श स्थिति है।
ऐसे पुस्तकालयों के विकास के लिये, सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम पारित करना नितान्त आवश्यक है। पुस्तकालयों के सुसंबद्ध और प्रभावी विकास के लिये पुस्तकालय अधिनियम महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। जैसा ऊपर बताया गया है अभी तक 11 राज्यों में जन पुस्तकालय अधिनियम पारित हो चुके हैं। जिन राज्यों में जन ग्रन्थालयाल अधिनियम पारित नहीं हुए है उनमें पुस्तकालय अधिनियम पारित कराने के प्रयास किये जा रहे है और उनमें से अधिकांश में राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय, क्षेत्रीय पुस्तकालय, मण्डल पुस्तकालय आदि स्थापित हो चुके हैं। दिल्ली, लक्षदीप तथा सिक्किम को छोड़कर प्रत्येक राज्य एवं संघ शासित प्रदेश में राज्य पुस्तकालय स्थापित हो चुके हैं। तमिलनाडु का कोनेमेरा जन पुस्तकालय, महाराष्ट्र का एशियाटिक सोसायटी पुस्तकालय और दिल्ली का दिल्ली पब्लिक, लॉयब्रेरी डिलीवरी ऑफ बुक्स एण्ड न्यूजपेपर एक्ट के अधीन देशभर के प्रकाशकों से निःशुल्क ग्रन्थ प्राप्त करते हैं। सामान्यतः एक राज्य में एक राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय स्थापित किया जाता है परन्तु “दादर तथा नगर हवेली”, गुजरात एवं ‘जम्मू-कश्मीर’ में दो दो राज्य पुस्तकालय स्थापित किये गये हैं।
• निष्कर्ष
भारत के जन पुस्तकालय विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर ऐसा आभास ‘होता है कि यहाँ पुस्तकालय विकास की योजनाएँ तो काफी बनी परन्तु उन्हें लागू नहीं किया जा सका। इस प्रसंग में सर्वप्रथम सिन्हा समिति (1957) का नाम आता है जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। उसकी अनुशंसायें उच्च कोटि की थी परन्तु उनको लागू नहीं किया गया। रंगनाथन ने भी समय समय पर पुस्तकालय विकास की अत्यन्त उपयोगी और ठोस योजनायें प्रस्तुत की। उन पर कोई विचार नहीं किया गया। लेकिन भारत के जिन राज्यों में पुस्तकालय अधिनियम पारित हो चुके हैं वहाँ पुस्तकालय सेवा अधिक सुनियोजित ढंग से प्रदान की जा रही है। हालांकि ये राज्य भी अपने पारित अधिनियम से संतुष्ठ नहीं है शेष भारतीय राज्यों में जन पुस्तकालय सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है।
• सारांश
इस इकाई में आपको “पुस्तकालय विकास” और “पुस्तकालय आन्दोलन” का अन्तर बताया गया और पुस्तकालय विकास के लिये पूर्व अपेक्षित अनिवार्यताओं और उसके विकास में बाधाओं पर प्रकाश डाला गया आधुनिक भारत में पुस्तकालय विकास सन् 1910 से बड़ौदा राज्य से माना जाता है। तत्पश्चात् पुस्तकालय विकास के लिए संस्थापित समितियों की चर्चा की गई। भारत में पुस्तकालय प्रशिक्षण तथा पुस्तकालय विज्ञान साहित्य की संक्षिप्त चर्चा की गई। भारत के प्रमुख पुस्तकालय संघों से परिचित कराया गया। जन पुस्तकालय अधिनियम, पुस्तकालय विकास के लिये नितान्त आवश्यक घटक है, उसकी चर्चा की गई है। जन पुस्तकालय के अतिरिक्त शैक्षणिक पुस्तकालय और विशिष्ट पुस्तकालय भी समग्र पुस्तकालय सेवा के महत्वपूर्ण अंग हैं। उनकी भी चर्चा की गई है और प्रलेखन और विशिष्ट पुस्तकालय सेवाओं की झांकी प्रस्तुत की गई है। किसी देश में उस देश के राष्ट्रीय पुस्तकालय का बड़ा महत्व है। उसकी संक्षिप्त चर्चा की गई है। भारत के जन पुस्तकालय विकास में “दिल्ली पब्लिक लॉयब्रेरी” की स्थापना एवं उसकी गतिविधियाँ एक महत्वपूर्ण चरण है। अतः इसके संबंध में बताया गया है। पुस्तकालय विकास से सम्बन्धित कुछ प्रमुख व्यक्तियों से परिचित कराने के उपरान्त सर्वव्यापी पुस्तकालय सेवा का अनुमान प्रस्तुत किया गया है और भारत में जन पुस्तकालयों की वर्तमान स्थिति का विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया गया है।
• अभ्यासार्थ प्रश्न - पुस्तकालय विकास और पुस्तकालय आन्दोलन में विभेद प्रस्तुत करते हुए भारत में पुस्तकालय विकास के मार्ग में प्रमुख बाधाओं की चर्चा कीजिये।
- भारत में पुस्तकालय विकास के महत्वपूर्ण घटकों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कीजिये।
- भारत में बीसवीं शताब्दी में पुस्तकालय विकास की चर्चा कीजिये।
- टिप्पणियाँ लिखियेः
(i) सिन्हा समिति का प्रतिवेदन
(ii) भारत का राष्ट्रीय पुस्तकालय संघ
(iii) दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी
(iv) इंडियन लायब्रेरी एसोसियेशन
(v) भारतीय पुस्तकालय आन्दोलन में रंगनाथन की भूमिका